पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१८५

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पालसिना ] कि सन्तान के सुधरने का मार्ग खुला रहेगा। जो कुछ गुरु का कर्तव्य है वह भी कभी २ सभी चरितार्थ होगा जब पिता स्वयं गुरू की परीक्षा कर लें। यह कलियुग है। इसमें बहुत ही थोड़े से ऐसे लोग हैं जो पराए लड़के को अपना लड़का समझ के केवल पोथी ही पढ़ा देना मात्र अपना कर्तव्य न समझते हों। अतः गुरू जी के चाल चलन को देख के उनके पास लड़के को पढ़ाने भेजना पिता का मुख्य धर्म है। शास्त्र का यह वाक्य कि 'माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः' अत्यन्त सत्य है। पर यदि पाठक सुपठित और सच्चरित्र न हुवा तो पढ़ाना भो दुर्व्यसन मोल लेना है। इससे तो यदि संभव हो तो पिता आप ही पढ़ावे, नहीं तो यह समझ ले कि पढ़े लिखे कुमारगी से बिन पढ़ा सज्जन अच्छा। जिन युवा पुरुषों को हम स्वतन्त्राचारी देखते हैं उन्होने बहुत सी बातें पाठशाला ही में सीखी है, अतः पिता को योग्य है कि लड़कों को पढ़ने पीछे भेजे, पहिले कुछ दिन तक यह निश्चय कर ले कि पढ़ानेवाले कैसे हैं। ___पढ़ाने वाला मतवाला न हो नहीं तो अन्य मत के बालकों को आफत होगी। यह दोष जिस मनुष्य में होगा वुह दूसरों का सच्चा हितेच्छु कभी नहीं हो सकता। यदि पढ़ाने में श्रम भी करेगा तो निज मत के आग्रह के मारे सदैव शिष्यों के कुलाचार की निंदा करेगा, जिसका फल यह होगा कि या तो लड़कं अपने पूर्वजों को रोति नीति को तुच्छ समझने लगेंगे या गुरू जी को गुरुआई ही को मकड़ी की तरह झाड़ डालेगे या सदा मन ही मन कुढ़ा करेंगे या सभी प्रकार की बातें कुबातें सह लेने के लती हो जायेंगे। यह चारों बातें बुरी हैं। क्षमाशीलता के हम द्वेषी नहीं हैं, पर बहुत सो बातें ऐसी भी होती हैं जिनका सहन करना निरो नीचता, महा बेगरती है। मतवाले का दूसरा अर्थ नशेबाज है। यह भी यद्यपि सबके लिए दूषित है पर शिक्षक के लिए महा दुर्गुण है। इसके होने से गुरु जी पढ़ाने में चाहे जो भी लगावें पर 'खरमूजे को देख के खरमूजा रंग पकड़ता है', क्या आश्चर्य है शागिर्द साहब भी गुरुनी के आचरण देखते २ भंगड़ सुलतान अथवा होटलगामी हो बैठें। हमारे पुराने ढंग के हिंदू भाई लडकों को मिशन स्कूल में भेजना नही पसंद करते। यह उनकी मूल नहीं है बरंच बड़ी दूरदर्शिता है। हम यह नहीं कह सकते कि वहां जाके सब किस्तान हो जाते हैं पर इसमें संदेह नहीं है कि अपने सनातनाचार को वे उतना आदरणीय नहीं समझते जितना कि चाहिए। यही कौन भलाई है। बहुधा पढ़ानेवालों में यह दोष भी होता है कि चेले में ओ नौकर में भद ही नहीं समझते। चिलम भरना, तरकारी खरीदना, पंखा खीचना, सभी काम शिष्य ही के माथे । यह भी बड़ा हानिकारक बर्ताव है। हां, पढ़नेवाले का धर्म है कि गुरु सेवा में तत्पर रहे पर गुरु का भी यह धर्म है कि शिष्य को पुत्र की भांति समझे। यह बात और है कि सथा दे दी गई है, छुट्टी का समय है, कोई ऐसा ही आवश्यक काम है अथवा और कोई कार्यकर्ता नहीं है तो शिष्य ही से कह दिया, पर यह क्या अंधेर है सारे काम लड़के ही के सिर पटक दिए जाय । हिंदू विद्यादाता तो खैर यह विचार भी रखते हैं कि अमुक काम करने योग्य है अमक नहीं हैं, पर बहुतेरे मौलवियों के यहां हमने द्विज जाति के बालकों को चिलम भरतेऔर