पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१८६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१६४ [ प्रतापनारायण-प्रन्थावली पाव दबाते,पंखा खीचते और झाड़ देते देख के खेदपूर्वक यही विचार किया है कि लड़के तो अजान हैं औ शिक्षक भी बिधर्मी होने से इतना दोषास्पद नहीं है, पर माता पिता निश्चय तुच्छ एवं स्वार्थान्ध हैं। उनके इजत है न गैरत । हमने ऐसा शोकजनक दृश्य देख के कई बेर बालकों के माता पिता से कहा पर उन निलंबों से यही उत्तर पाया कि उस्ताद का दर्जा बड़ा है । यह सच है, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि ब्राह्मण क्षत्रियों के लड़के इतने तेजभ्रष्ट कर दिए जायें। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठकगण ऐसे गुरुओं से अपने प्यारे बच्चों को दूर रखेंगे। ___ काम, क्रोध, लोभ और मोह को बुद्धिमानों ने बहुत बुरा ठहराया है पर हमारी समझ में पढ़ाने वाले के लिए मोह कोई औगुण नहीं है, क्योकि वह प्रवृत्तिमार्ग का पथदर्शक है और प्रवृत्तिरूपी रेल का अंजिन यही मोह है। यदि शिष्य के साथ सरल चित्त से गुरु जी पुत्र का सा बर्ताव रखें तो अहोभाग्य । क्रोध भी यदि काम और लोभ का सहवर्ती न हो तो कोई दोष नहीं बरंच गुण ही है। चेले डरते रहेंगे तो बहुतेरी बुराइयों से बचेंगे। बहुधा देखा गया है कि क्रोधी गुरु के चेले पढ़ने में आलसी और डीठ नहीं होते पर काम और लोभ निश्चय महा कुलक्षण हैं । बहुतेरे पंडित मौलवी और मास्टरों को हम देखते हैं कि जो लड़के उनकी भेंट पूजा नहीं करते उनकी ओर वे बहत कम ध्यान रखते हैं। हमने स्वयं कई वर्ष स्कूलों में पढ़ाया है और कई लोगों की परीक्षा भी कर ली है कि बाजे २ मास्टरों ने लड़के से कहा कि 'हमें एक रुपया दो तो तम्हारा प्रोमोशन कर दें'। भला इस दशा में लड़के बिचारे क्या सीख सकते हैं ? इसके सिवा कानपुर में बई शिक्षक ऐसे भी हैं कि जिनके लक्षण किसी से छिपे नही हम यदि उनके सच्चे २ चरित्र लिखने बैठे तो एक अच्छी खासी लंबी चौड़ो बहार एक के ढंग को मसनवी बन जाय । पर सभ्यता बाधक होती है और यह भी जी में माता है कि सत्य का जमाना नहीं है, क्यों नाहक बिरोध बढ़ाइए । पर उन माता पिताओं को चाहिए कि यदि सचमुच अपने प्यारे बच्चों के शुभचिंतक हैं तो ऐसे तणाच्छादित कुपवत गुरुघंटालों से उन्हें बचावें। वहां उनके पढ़ने की आशा थोड़ो है, बिगडना प्रत्यक्ष है। हमारे प्यारे देशभक्तों का धर्म है कि अपने २ नगर में ऐसे पढ़ाने वालों को शिक्षा दें अथवा शिक्षा विभाग के उंचे अधिकारियों द्वारा उन्हें ठीक रखने का प्रयत्न करते रहें। परमेश्वर की दया से हमारी वर्तमान सर्कार ऐसी नहीं है कि प्रमाणपूर्वक निवेदन पर ध्यान दे। हम स्वयं अपने दुखों को न प्रकाश करें तो हमारी भल है। बहुतेरे पाठकों में यह भी अपलक्षण होता है कि वे अपने शिष्यों को उन सभाओं में जाने गे भी रोकते हैं जो सभा वास्तव में अच्छी बातें प्रचार करती है। पर उनमें कोई एक आध व्यक्ति ऐसा है जिससे सकारण व निष्कारण : मास्टर साहब को टेष है। यह नहीं समझते कि एक पुरुष की ईरषा के कारण किसी समूह को देशोपकारी शिक्षा से बंचित रखना अन्याय नहीं तो क्या है ? खं. ५, सं० ५,६,७,९, (१५ दिसम्बर ह• सं० ४ और १५ जनवरी, १५ फरवरी, १५ अप्रैल ह० सं०५)