पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१९०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१६८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली उइ सिरनामा ओ पार्छ के दुवा सलाम ।' ४३. रसोई का वर्णन, 'चढ़ी रोसैयां रजपूतन की बटुबन पकै हरिन को मांसु ( यदि प्रस्तावना अन्य प्रकार की हो तो 'रजपूतन को' के ठौर पर, "है ब्रह्मन की' और 'हरिन को मांसु' के स्थान पर 'भातु और दालि' कहना दूषित नहीं है। ४४. किसी बीर की चाल, 'जूता लपेटा मरकत आवै खटकत आव ढाल तरवारि ।' ४५. व 'खटकत आवै मुजा पर ।' ४६, अथवा गैड़की चाल, 'राति उ दौर औ दिन दौरै बटिहा कहुँ न करें मुकाम ।' ४७. गाड़ी की चाल, "खररररररर पैया बाजै रब्बा चल पवन के साथ ।' ४८. किसी सुंदरी की चाल, 'रुनुक अनुक पग धरति घरनि पर कम्मर तीन बे लोचा खाय ।' ४९. तलवार की चाल, 'आंवाझ्वार चले तरवारि।' ५०. वा, 'रे तरवारि चले पतिझारु ।' ५१. किसी का क्रोध, 'कारी पुतरियां लाली परि गई नैना अगिनज्वाल ह जायं ।' ५२. सोच, 'तरे की सासें तरे हे रहि गई उपर ऊपर की रहि जायं ।' ५३. अथवा, 'राजा ( वा कोई नाम ) रहे सनाका खाय ।' ५४. दुःख, 'मल्हना (वा किसी स्त्री अथवा पुरुप का नाम) छोड़ि दई डिंडकार ।' ५५. पुरुष को लज्मा, 'लटक के मुच्छ पिडरी होइन ।' ५६. वा, 'ओझुकि गए मुच्छ के बार ।' ५७. प्रसन्नता, 'फूलि के ऊदन ( वा कोई नाम ) गरगजु हैगे।' ५८. अथवा, 'गजु भरि छाती भै ऊदन के ( वा 'उदया' के )।' ५९. युद्धयात्रा, “हाहाकारी बीतत आवे ।' ६०. अथवा 'डंका होत गोल में जाय ।' र ५, सं० ५, ६, १२ (१५ दिसंबर हः सं० ४ और १५ जनवरी १५ जुलाई ह. सं० ५ ) तथा खं० ७, सं० १, २ (१५ अगस्त, सितंबर ह. सं. ६) कांग्रेस की जय श्रीयुत भीम जो जिस समय प्रयागराज में आकर सुशोभित हुए थे, इस वाक्य को प्रेमपूर्ण हो के कई वेर उच्चारण किया था। कांग्रेस के मध्य में भी सैकड़ों सजनों के मुख से यही मंत्र उच्चारित हुवा था और अंत में इलाहाबाद स्टेशन पर तो यह शब्द आकाश को भेद गए थे ! अहाहा! आज तक हमारे कानों और प्रानों में यही ध्वनि गूंज रही है, और रह रह के म से यही निकलता है कि कांग्रेस की जय' ! क्यों न हो, कांग्रेस साक्षात् दुर्गा जी का रूप है क्योंकि वह देशहितषी देवप्रकृति के लोगों की स्नेहशक्ति से आविर्भूत हुई है, 'देवानां दिव्य गुण विशिष्टानां तेजो राशि समुद्भवा' है ! फिर हम ब्राह्मण होके इसको जय क्यों न बोलें । प्रत्यक्ष प्रभाव यही देख लीजिए कि इसके द्वेषियों ने अपनो सामर्थ्य भर झूठ, प्रपंच, छल, कपट, कोई बात उठा न रक्खी थी पर 'जस जम मुरमा बदन बढ़ावा । तासु द्वगुण कपि रूप दिखावा । अंत में 'सत्यमेव जयते' इस वेद वाक्य के अनुसार कांग्रेस का अधिवेशन हुमा, और ऐसा हुषा जैसी मासा न थी।