पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१९४

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प्रश्नोत्तर अमूर्तिवादी उवाच-'हम नहीं जानते आप लोग कैसे मूर्ख हैं कि एक जड़ पदार्थ को समझ लेते हैं कि सर्वशक्तिमान जगदीश्वर है ।' प्रतिमाप्रेमी उवाच -'साहब यदि हम पत्थर के टुकड़े ही को ईश्वर जानते होते तो बाहर जाती समय ठाकुरद्वारे में ताला कभी न लगाते क्योंकि सर्वशक्तिमान की आंखों के आगे से चोर चहार को कोई वस्तु उठा ले जाने की सामथ्र्य नहीं है। इससे यह तो प्रत्यक्ष है कि हम जड़ को कभी चैतन्य नहीं समझते । रहा यह कि हम मूर्व हैं। बड़े २ रिषि मुनि पीर पयगम्बर हो गए किसी ने यह न बताया कि ईश्वर का रूप गुण स्वभाव बस इतना मात्र है। जहां बड़े बड़ों को यह दशा है वहां हमारी क्या चलाई। हम तो मूर्व हई हैं, 'जेहि मारुत गिरि मेर उड़ाही । कही तूल केहि लेखै माही ?' पर आश्चर्य और आक्षेप के लायक तो यह है कि आपको ईश्वर मालूम होता है ! साधारण त्रियों और छोकड़ों की सी अकिल भी नहीं रखते (हम तो अपने पूज्य परमात्मा को सर्वान्तर्यामी मानते हैं, पर प्रतिमापूजन के विरोधियों की बातें सुन २ ऐसी शंका हो सकती है) क्योंकि जब हम उनमे से (स्त्री आदि में मे) किसी को चाहते हैं, पर लोक लाज से, डर से सब ठौर, सत्र वात,सब प्रकार की बातें कहने सुनने में असमर्थ होते हैं इस दशा में बहुधा ऐमा होता है कि जब हमारा प्रेमपात्र किसी निज सम्बन्धी के साथ दिखाई देता है तब हम अपने किसी साथी से कहते हैं कि यार तुम्हारे तो दर्शन ही नहीं होते ! क्या नाराज हो ? हम कई दिन से तरस रहे हैं, इत्यादि । यह बातें यद्यपि दूसरे से कही जाती हैं पर हमारा प्रगय- भाजन भली भांति समझ लेता है कि हम पर बौछार है। पर अफमोस कि आप का ईश्वर इतना भी नहीं समझता कि यह मूर्ति को, बरंच मूर्ति के मिस, हमें पूज रहा है ! हम तो ऐसे ईश्वर को दूर हो से दंडवत करेंगे ( ईश्वर हमारे प्रेम के आधार हैं, वुह हमारे सब संकेत समझते हैं )। खं० ५, सं० ७ ( १५ फरवरी ह० सं०५) समझने की बात यह बात ठीक है कि हमारे पूर्व पुरुष बल, बुद्धि, विद्या धन, धर्यादि को पराकाष्ठा को पहुंचे और बड़े २ काम अकेले कर लेते थे। इसका प्रमाण पुराणों ही में नहीं बरंच पुरानी बस्तियों में प्रत्यक्ष भी कुछ २ दिखाई देता है। इससे उनके मुंह से यह कहावत शोभा देती थी कि सिंह को किसो की सहायता न चाहिए', क्योंकि जिस समय में समर्थ