पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१९५

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समझने की बात ] १७३ व्यक्तियों की संख्या अधिक थी उस समय एक मनुष्य सब कुछ कर सकता था। दूसरे की मदद मांगना क्या जरूरी था। पर अब वुह समय नहीं । अब कहने मात्र को उनके बंशज हैं; किसी करतूत के योग्य नहीं हैं। समय का फेर, ईश्वर को इच्छा, कर्मों का फल, चाहे जो कहिए पर इसमें संदेह नहीं है कि हमारे दिन गिरे हुए हैं। हम रिपियों के वंशज बन के केवल उनकी बिडम्बना मात्र करते हैं, कुछ कर धर नहीं सकते । अतः हमारे मुख से यह कहना शोभा नहीं देता कि साझे की खेती गधा भी नहीं खाता । इस कहतूत का गूढ़ अर्थ कुछ ही क्यों न हो पर है हमारे लिए हानिकारक ! जहां हमने शास्त्रों का पठन पाठन एवं शस्त्रसंचालन छोड़ दिया है। वहां इस कहावत को भी छोड़ देना चाहिए। आपके इस कहने से छुटकारा न होगा कि यह हमारी चिरकालिक कहावत है। जव कि आपने सहस्रों लाभदायक पुरानी बातें छोड़ दी तब एक लोकोक्ति को छोड़ना कोई बड़ी बात नहीं है । अंगरेजों के यहाँ ऐसे मनहूस मसले का बर्ताव नहीं है, इससे वे कोई छोटा सा काम भी होता है तो बहुत से लोग थोड़ो २ सहायता करके उसे कर उठाते हैं और भली भांति उसका फल भोगते हैं। पर हमारे यहां छोटे बड़े, दिहाती शहराती सब के मुख पर दिन रात यही कहावत रक्खी रहती है कि साझे की संतो गधा भी नहीं खाता। इसी को कहते २ मुनते २ लोगों के संस्कार ऐसे बिगड़ गए हैं कि कोई काम करते हैं तो अकेले ही मरा पचा करते हैं । कष्ट, हानि सब सहते हैं पर पीछे से अपना सा मुंह ले के रह जाते हैं । रुजगार, व्यवहार,देशोपकार, सुरीतिसंचार, कोई काम हो यदि बहुत से लोग मिल के किया करें तो परिश्रम कम हो, पर समझने वाला चाहिए। अंगरेज ऐसा ही करके लाखों के वारे न्यारे करते हैं। हमारे नीतिकार ऐसे भी बहुत से उपदेश कर गए हैं कि 'अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्य साधिनी', 'सात पांच की लाकरी एक जने का बोझ' इत्यादि, पर इन पर कोई ध्यान नहीं देता। जानते सब हैं पर उदाहरण कोई नहीं दिखाता । पाठक ! कोई काम ऐसा कर तो उठाओ। इसका मजा थोड़े ही दिनों में पाइएगा। पर बातों से कुछ न होगा, कुछ करने ही से होगा। देखें तो कौन साहब आगे कदम बढ़ाते हैं । हम भी उसमें शरीक होने को तैयार हैं। पर आप सोचिए तो कि क्या कीजिएगा। इस मास में सोच रखिए नहीं तो हमी बतावेंगे। खं० ९, सं०७ (१५ फरवरी ह. सं. ५)