पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२०४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१८२ [प्रतापनारायण-संपावली खुर घिसे पीठ बोझ नहि लेइ । ऐसें बूढ़े बैल को कौन बांध भूसा देइ ।' जिस समय मृत्यु की दाढ़ के बीच बैठे हैं, जल के कछुवे, मछली, स्थल के कोवा, कुत्ता आदि दांत पने कर रहे हैं, उस समय में भी यदि सत चित्त से भगवान का भजन म किया तो क्या किया? आपको हड्डियां हाथी के दांत तो हई नहीं कि मरने पर भी किसी के काम आवंगी। जीते जी संसार में कुछ परमार्थ बना लीजिए, यही बुद्धिमानी है। देखिए, आपके दांत ही यह शिक्षा दे रहे हैं कि जब तक हम अपने स्थान, अपनी जाति (दंतावली) और अपने काम में दृढ़ हैं तभी तक हमारी प्रतिष्ठा है। यहां तक कि बड़े २ कवि हमारी प्रशंसा करते हैं, बड़े २ सुंदर मुखारविंदों पर हमारी मोहर 'छाप' रहती है। पर मुख से बाहर होते ही हम एक अपावन, घृणित और फेंकने योग्य हड्डी हो जाते हैं-'मुख में मानिक सम दशन बाहर निकसत हाड़'। हम नहीं जानते कि नित्य यह देख के भी आप अपने मुख्य देश भारत और अपने मुख्य सजातीय हिंदू मुसलमानों का साथ तन, मन, धन और प्रानपन से क्यों नहीं देते । याद रखिए, 'स्थान भ्रष्टा न शोभते दंता केशा नखा नराः।' हाँ, यदि आप इसका यह अर्थ समझें कि कभी किसी दशा मे हिंदुस्तान छोड़ के विलाया जाना स्थान भ्रष्टता है तो यह आपकी मूल है। हंसने के समय मुह से दांतों का निकल पड़ना नही कहलाता बरंच एक प्रकार की शोमा होती है। ऐसे ही आप स्वदेर्शाचता के लिए कुछ काल देशांतर में रह आएं तो आपकी बड़ाई है। पर हो, यदि वहाँ जा के यहाँ की ममता छोड़ दीजिए तो आपका जीवन उन दांतों के समान है जो होंठ या गाल कट जाने से अथवा किसी कारण विशेष से मुह के बाहर रह जाते हैं और सौरी शोभा खो के भेड़िए के से दांत दिखाई देते हैं। क्यों नहीं, गाल और होंठ दांतों का परदा है, जिसकै परदा न रहा अर्थात् स्वजातित्व की गैरतदारी न रहो, उसको निरलन जिंदगी व्यर्थ है। कभी आपको दाड़ की पीड़ा हुई होगी तो अवश्य जी चाहा होगा कि इसे उखड़का डालें तो अच्छा है। ऐसे ही हम उन स्वार्थ के अंधों के हक मे मानते हैं जो रहें हमारे साथ, बनें हमारे ही देशमाई पर सदा हमारे देश, जाति के अहित ही में तत्पर रहते हैं। परमेश्वर उन्हें या तो सुमति दे या सत्यानाश करे । उनके होने का हमें कौन मुच है हम तो उनकी जै जैकार मनावेगे जो अपने देशवासियों से दांतकाटी रोटी का बर्ताव ( सच्ची गहरी प्रीति ) रखते हैं। परमात्मा करे कि हर हिंदू मुसलमान का देशहित के लिए चाव के साथ दांतों पसीना आता रहे। हपसे बहुत कुछ नहीं हो सकता तो यही सिद्धात कर रखा है कि-'कायर कपूत कहाय, दांत दिखाय भारत तम हरो'। कोई हमारे लेख देख दांतों तले उंगली दबा के सूझ बूझ की तारीफ करे अथवा दांत बाय के रह जाय या अरसिकतावश यह कह दे कि कहां की दांताकिलकिल लगाई है तो इन बातों की हमें परवा नहीं है। हमारा दांत जिस ओर लगा है वह लगा रहेगा। औरों की दंतकटाकट से हमको क्या। यदि दांतों के संबंध का वर्णन किया चाहें तो बड़े २ ग्रंप रंग डालें और पूरा न पड़े ! आदिदेव श्री एकदंत गणेशजी