पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२०६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१८४ [प्रतापनारायण-प्रयावली बलनाशक दुव्यसनों से बचते हुए भी अधिकांश निबंल ही पाते हैं। यह बुद्धिमानों का महानुभूत सिद्धांत है कि 'उत्तम खेतो मध्यम बान' निषिद्ध चाकरी भीख निदान', पर आजकल कृषिजीवी ही लोग अधिक दरिद्री पाए जाते हैं। कितने शोक की बात है कि जिनके घर से हमारे नगरवासी भाइयों को अन्न वस्त्र मिलता है उन्हीं को रोटी, लंगोटी के लाले पड़े रहते हैं । हमारे बुद्धिमान डाक्टर और हकीम जिन बातों को स्वास्थ्यरक्षा का मूल बताते हैं उन्ही कामों को दिन रात करने वाले यथोचित रीति से हृष्ट पुष्ट न हो, इसका कारण क्या है ? ईश्वर की इच्छा, काल की गति, वर्तमान राजा की नीति, चाहे जो कह लीजिए, पर इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि हमारे नाश का मुख्य कारण हमारी ही मूर्खता है ! नहीं तो कुत्ते भी जहां बैठते हैं वहां पूंछ हिला के बैठते हैं । पर हमने अपनी चाल उनसे भी बुरी कर रक्खी है कि बिस पृथ्वी पर रहते हैं उसी के बनने बिगड़ने का ध्यान नहीं रखते ! हमारे पूर्वज मूर्ख न थे जिन्होंने धरती को माता एवं शिव जी की आठ मतियों में से एक मति कहा है, तथा उसके पूजने की आज्ञा दी है। वे भलीभांति जानते थे कि संसार में जितने पदार्थ हैं सबकी उत्पत्ति और लय इसी में और इसी से होती है। हम सारे धमधम इसी पर करते हैं, हमारे सुखभोग की सारी सामग्री हमें इसी से प्राप्त होती है। फिर इसके माता होने में क्या सन्देह है ? यदि इस माता के प्रसन्न रखने में उद्योग न करते रहेंगे तो हमारी क्या दशा होगी ? अब इस समय के अनेक विदेशी विद्वानों को भी निश्चय हो गया है कि यदि कोई पुरुष नित्य शरीर पर साफ चिकनी मट्टो लगाया करे वा प्रतिदिन कुछ काल उसमें लोटा करे तो शरीर, मस्तिष्क एवं हृदय को बड़ा लाभ पहुंचता है। हमारे यहां के अपठित लोग भी जानते हैं कि 'मट्टी देही को पालती है' पर यदि हम मट्टी को शुद्ध न रखें, उसके अशुद्ध करने वालों को न रोके, शुद्ध मट्टी प्राप्त करने में आलस्य अथवा लोभ करें तो हमारा अपराध है कि नहीं? और उस अपराध से मट्टी लगाने तथा उसके लाभ उठाने से हम वंचित रहेंगे कि नहीं ? ऐसे ही मट्टी की यावत् वस्तुओं को खानि हमारी धरतो माता निर्बीजा होती रहेगी ( जैसी आजकल हमारी बेपरवाई से होती जाती है ) तो इसमें भी कोई आश्चर्य है कि एक दिन हमारी जीवनयात्रा ही कठिन हो जायगी, और जिन गऊ माता के लिए आप इतनी हाय २ कर रहे हैं उनका पालना भी महा दुर्घट हो जायगा ? क्योंकि सबसे बड़ी तो यहो धरती माता है । जब यही खाने को न देगी तब किसको कहां ठिकाना है। इसलिए देशवासी मात्र को चाहिए, यदि अपना और आगे आने वाली पीढ़ियों का सचमुच भला चाहते हैं तो सब बातों से पहिले धरती माता के प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें। फिर दूसरे काम तो सहज में हो जायंगे । बाज हम देखते हैं कि हमारी भारतभूमि ऐसी बलहीन तनछोन हो रही है जिधर देखो उधर 'खेती ना किसान को, भिखारी को न भीख कहूँ। बनिया को बनिज न चाकर को चाकरी । जीविकाविहीन दोन छीन लोग आपस में, एकन सों एक कहैं कहां जाई का करी।' की दशा हो रही है ! इस दशा में बड़े २ मनसूवे बांधना शेखचिल्ली के इरादे हैं ! नहीं तो सम्पादकों, व्याख्यानदाताओं, लेखकों को चाहिए कि जहां और बातें सोचा करते हैं वहां