पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२११

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समय का फेर ] खाने मर को दिया है उन्हें अपने घन की ममता नहीं है। बिलायती मट्टी भी ( चीनी के बर्तन दवात आदि । प्यारी लगती है, अपने यहां का सोना भी अखरता है। जिसके घर में देखो सारा सामान तो भी रपए में बारह आने भर सामग्री विलायत ही की बनी पावोगे, जिसमें दाम तो एक २ के चार लगे हैं पर ठहरती देशी की अपेक्षा आधे दिन भी नहीं और तनक बिगड़ जाने पर सब स्वाहा ! इस सत्यानाशी पसंद की कथा कहां तक कहें, केवल दो एक बातों से समझ लेना चाहिए । शरीर की रक्षा के लिए वैध और औषधि का काम पड़ता है, उसमें भी अच्छे से अच्छे वैध को एक रूपया भेंट ( सो भी मुलहिजे में काम चले तो और भी अच्छा ) पर डाक्टर साहब को सूरत दिखोनी चार रूपया ( न दें तो नालिश करके ले लें)। दवाई का यह हाल है कि वैद्यराज मोती की भस्म दें तो मूली गाजर सा भाव करेंगे रप अंगरेजी दुकान से मशक का पानी भी कम से कम आठ आने का उठा लावेगे। सौंफ, धनियां, ककड़ी, खीरा के बीज भादि की ठंढाई थोड़े दाम में बने, रुचिकारक हो, कई छोटे मोटे रोगों का नाश करे, सो तो काटती है पर सज्जी, नीबू आदि का वीर्यनाशक पानी, छत्तिसों जात को उच्छिष्ट,बोतल से भरा हुआ चार पैसे को भी सस्ता है । जहां ऐसो समझ है वहां धन कैसे बचे और देशियों को अपना बिधा बढ़ाने का उत्साह कहां से हो। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि देश ने तरक्की की है और कर रहा है । तरक्की तो विलायत ने की है, यहां तो चारों ओर से सारी बात नाश हो रही है और हिन्दू बीच में बैठा हुआ नाश होने के कारणों को सहायता पहुंचा रहा है। अगले अमीरों को यह ध्यान न रहता था कि जो लोग हमारे पास आ बैठते हैं उनका किसी रूप से कुछ उपकार होता रहना चाहिए, पर आजकल के धनिकों में बिरला ही होगा जिसे अपने आश्रितों का कुछ विचार रहता हो, नही तो खुशामद और सेवा कराने के लिए तो अमीर हैं, कोई प्रशंसा में कविता बना दिया करे या समाचारपत्रों में तारीफ छपवा दिया करे तो और भी अच्छा (बरंच बाजे २ अमीर प्रगट वा प्रच्छन्न शब्दों में इस बात की फरमाइश भी किया करते हैं)। दन की लेने और गरीबों को धमकी देने में भी राजा करण का अवतार है पर जो कोई यह चाहे कि इनके धन तथा बचन से कुछ मेरा भला होगा वह बिचारा बच मूर्ख चाहे न भी हो पर गरजमन्दी के सबब बावला तो हई है। आगे मालिक को अपने नौकरों का यहां तक ममत्व होता था कि सदा उसके दुख सुख में साथी रहते थे। इसी कारण तीन चार रूपए के नौकर आनन्द से जीवन बिताते थे और निमकहराम को बहुत बुरी गाली समझते थे । पर अब के मालिकों को यह विचार सदा रहता है कि अमुक को दस रुपया मासिक देना पड़ता है। यदि उसके स्थान पर कोई पांच रू. का आदमी मिल जाय तो अति उत्तम हो। योग्यता को क्या अंच:- धरना है ? इसी से नौकरराम भी यह समझे रहते हैं कि मुरदा चाहे बिहिश्त जाय चाहे दोजख, हमें अपने हलुए मांड़े से काम है। जब तक जिस रीति से बने अपनी टही जमाते रहो फिर तो एक दिन यह होना ही है कि यह कहेंगे हर तरफ । जनमभर का देना न इन्होंने हमारा लिया है न हमने इनका । हाय, वह दिन कहां गए जिनमें छोटे २ रोजगारी और साधारण २ कर्म-