पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१९२
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१९२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली बरंच विचार के देखो तो उनके फक्कड़पन का उद्देश्य ही यह पावोगे कि अपने तथा अपनायत वालों के साथ विरोध करनेवाले को जैसे बने पैसे नीचा दिखाये रहना । क्या यह उत्तम गुण इस काल के भद्र पुरुषों में भी है ? हम तो देखते हैं नई उमर के पढ़े लिखे लोग पड़ोसी बुड्ढे की क्या संगे बाप की भी झिड़की, अपना सौभाग्य समझ के, आदर के साथ नहीं सहते एवं चाहे जैसा गहिरा मित्र अथवा उपकारी क्यों न हो पर उसकी बात अटकने पर टालमटोल ही करते हैं। सामर्थ्य होने पर भी किसी आत्मीय के धन मानादि की रक्षार्थ अपने लिये थोड़े फसाब में डालना भी बेबकूफी समझते हैं । सच हैं नई २ अकिल के आगे पुरानी बातें बेवकूफी तो हई हैं। पर याद रखो, जिस बेवकूफी से अपने धन धर्म एकता प्रतिष्ठा बल बड़ाई का अनुका बना रहे वह बेवकूफी ऐसी समझदारी से लाख बिस्था अच्छी है जिससे ऊपर वाली सभी बातों पर पानी फिरता है। जैसा इस समय में देख पड़ता है कि आगे के बेवकफ, भले बुरे, खोटे खरे चाहे जैसे थे पर अपनी बात निभाने के लिए किसी हानि तथा कष्ट से मुंह म मोड़ते थे ! साधारण लोग भी कहा करते थे कि बात और बाप एक है पर आजकल के अक्लमंदों ने इसके विरुद्ध यह कहावत निकाली है कि मर्द की जवान और गाड़ी का पहिया फिरता ही रहता है। यह बात कहते ही नहीं हैं बरंच सौ में नब्बे प्रत्यक्ष दिखा देते हैं कि आज उसी से दांतकटी रोटी है कल उमी से हड़परई की ठहर जायगी। मुंह से मित्र, भाई चचा क्या कहते बाप बना लें पर जी यही रहता है कि किसी तरह इसको छकाना चाहिये। अपनी जमाना चाहिये। आगे के लोग कही हुई का और भी अधिक ध्यान रखते थे। सब बहुधा करते थे, भाई सुफेदी पर स्याही चढ़ा के धरम तो न छोड़ेंगे। चार जनों के आगे झूठा बनने से मर जाना अच्छा है । पर अब बड़े बड़ों से चाहे जो लिखवा लो पर काम पड़ने पर सिवा टाले वाले के कुछ न देखोगे । लोकलना तो कोई बात ही नहीं रही। अपने जी में जो जैसा चाहे समझा करे, कोई मुंह पर कहने थोड़ी आवैगा। बस छुट्टी हुई। इसी भांति परलोक का भी खयाल है। अगले लोग समझते थे कि मोर बातों में चाहे जो करना पड़े पर गऊ ब्राह्मण के बीच में वेईमानी करेंगे दो नक में भी ठौर न मिलेगा। अब इसके विरुद्ध ब्राह्मणों की निंदा करना बाजे २ समुदायों का धार्मिक कृत्य हो गया है और उनका धन हरना कुशूलधान्य, मान हरना बुद्धिमत्ता एव येनकेनप्रकारेण नीचा दिखाये रहना परम चातुर्य है । तथा गौवें बोल नहीं सकती इससे और भी दुर्दशा सहतो हैं । सैकड़ों ब्राह्मण बैश्य उन्हें प्रत्यक्ष वा हेर फेर के साथ बधिकों के घर पहुंचाते हैं । बीसियों धर्म- ध्वजी उनकी रक्षा के बहाने चंदा समेट २ अपना पेट भरते और अपनी दुराशा की पूर्ति करने वाले समुदाय के आगे भेंट धरते रहते हैं। यह हम नहीं कह सके कि आगे 8ल, कपट, अधर्म, अन्याय का कही लेश न था। नहीं, अच्छे बुरे लोग सतयुग तक में थे, पर तो भी दुराचार और कुव्यवहार की एक हद्द थी जिसका उल्लंघन करना वे लोग भी अच्छा न समझते थे जिनका निर्वाह ही बुरी रीति पर निर्भर था। यहां तक कि डाकू और लुटेरे भी ब्राह्मणों, दुबलों और अबलाबों को बचा देते थे। पर अब तो हम