पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायन-पावली करते हैं और रोगी के दुख सुख का ध्यान रखते हैं अथवा अपनी दवा और मेहनत का दाम लेने में संकोच नहीं करते। चित्रकारों से किसी की कोई बड़ी हानि नहीं होती बरंच उनके द्वारा भूत और वर्तमान समय के अच्छे बुरे लोगों का, अन्य लोगों का स्मरण होता है। अत: औरों की अपेक्षा इनमें से नकंगामी थोड़े होने चाहिए-हां, ज्योतिषियों में बहुत लोग ऐसे हैं जो पढ़े लिखे राम का नाम ही हैं पर सबके अदृष्ट बत- लाने तथा अनमिल जोड़ी मिलाने और वर कन्या का जन्म नसाने एवं बैठे बिठाये गृहस्थों के जी में शंका उपजाने का बीड़ा उठाये बैठे हैं। वे अवश्य नर्क के भागी हों। पर जो अपनी विद्या के बल से भूगोल खगोल को हस्तामलक किए बैठे हैं उन्हें कौन नर्क में भेज सकता है ? अथवा यह कह देते हैं कि अमुक ग्रंथ के अनुसार हमारे विचार में यों आता है कि आगे क्या होगा क्या नहीं यह प्रश्न ईश्वर से जाके करो। यह कहने वाले भी नर्क से दूर हैं । रहे हरनिंदक, उन्हें नर्क से कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि परमेश्वर सदा एक- रस आनंदमय है। उनकी निंदा से न उनकी हानि न जगत की हानि है। हां, निदक अपना पागलपन दिखाता है, सो पागलपन एक रोग है, पाप नहीं। यदि हरनिदक का अर्थ अनीश्वरवादी ही लीजिए तो भी नर्क को उससे क्या संबंध है ? एक बात उसकी समझ में नहीं आती, उसे वह नहीं मानता, बस ! वरंच हम देखते हैं तो सब को स्वस्व रक्षा, सब से न्यायाचरण आदि गुण बहुधा नास्तिको ही में पाये जाते हैं। कपटी उनमें बहुत कम हैं । मला ऐसे लोग नर्क जायंगे? हां हरि की बास्तविक निन्दा किसी मत के कट्टर पक्षपाती अवश्य करते हैं। उनका नर्कबास युक्ति- सिद्ध है (यह बात आगे चल के खुलेगी)। कवियों के लिये बेशक यह बात है कि वे अकेले क्या चाहें तो एक बड़े समूह को लेके नर्क की यातना का स्वाद लें, चाहे बड़ी जथा जोड़ के जीवन के मुक्ति का आनंद भोगें, क्योंकि उन्हें अपनी औ पराई मनोवृत्ति फेर देने का अधिकार रहता है ! सिद्धांत यह कि ऊपर कहे हुए सब लोग अवश्य नक ही जायंगे यह बात विचारशक्ति को कभी माननीय नहीं हो सकती। पर हां, हमारे मतवाले भाई, अफसोस है कि, नर्क के लिये कमर कसे तैयार हैं ! क्योंकि इन महा- पुरुषों का उद्देश्य तो यह है कि दुनिया भर के लोग हमारे अथवा हमारे गुरु के चेले हो जायं, सो तो त्रिकाल में होना नहीं । और लोगों का आत्मिक एवं सामाजिक अनिष्ट बात २ में है। यदि ऐसा होता कि आर्यसमाजियों में आर्म, सनातनमियों में पंडित महाराज, मुसलमानों में मुल्ला जी, ईसाइयों में पादरी साहब इत्यादि ही उपदेश करते सब कोई हानि न थी, वरंच यह लाभ होता कि प्रत्येक मत के लोग अपने २ धर्म में हढ़ हो जाते। सो न करके एक मत का मनुष्य दूसरे सम्प्रदायियों में जाके शांति मंग करता है। यही बड़ी खराबी है क्योंकि विश्वास हमारे और ईश्वर के बीच निज संबंध है। एक पुरुष ईश्वर की बड़ाई के कारण उसे अपना पिता मानता है, दूसरा प्रेम के मारे उसे अपना पुत्र कहता है । इसमें दूसरे के बाप का क्या इजारा है कि पहिले के विश्वास में खलल डाले । वास्तव में ईश्वर सबसे न्यारा एवं सबमें व्याप्त है । वह किसी का कोई