पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२२४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२०२ [ प्रतापनारायण-मंचावली वाम्बूल हो से होती है। यदि ऐसे शब्द गिना चले तो लाखों तक गिनती पहुँचे । तित- लियों के रूप रंग, तोते तवा तूतियों की मधुर ध्वनि, तरुवरों के नाना जाति ज्ञात स्वादु, संयुक्त, फलफूल इत्यादि अनेक बातें ऐसी ही है कि जहां जाइ मन वही लुभाई। पृथ्वी पर की वस्तुओं को छोड़ आकाश की ओर दृष्टि कीजिए तो वहां भी तपन (सूर्य), तमीपति (चंद्रमा) और तारागण हैं। दिन रात दैदीप्यमान रहते हैं। सारांश यह कि उस त्रिभुवनपति ने जगत का चित्त आकर्षित करने के हित जितने उत्तम पदार्थ बनाए हैं, सब में 'तकार' का योग पाया जाता है। यदि कोई हमारे विरुद्ध तूतिया, तिताई, तातापन, तमाचा, इत्यादि शब्द सोच के 'तकार' की मधुरता में कटुता दिखाया चाहे तो उसके लिए दन्तत्रोटक उत्तर यह है कि तूतिया भी डाक्टरों की हाथ से महौषधि का काम देती है, तिताई भी वुह स्वादु देती है कि छहों रस उसके आगे दब जाते हैं तातापन भी वह है जो मोटे अन्न को स्वादिष्ट करता है, तमाचा के डर के मारे धृष्टों की धृष्टता जाती रहती है। फिर कोई कैसे कह सकता है कि तकार भी वर्ण- माला का अमृत नहीं है । जब तक त्रिपथगामिनी भगवती भागीरथी, तुलसी,लोक्यनाथ- प्रिया मादि के नाम का स्मरण, शोभा का दर्शन, महिमा का विचार एवं तपोधन मह- पियो के उपदेशो के अनुकूल आचार ग्रहण करने से त्रिताप के नाश हो जाने का पूर्ण निश्चय हो जाता है, तब तक तो 'तकार' का संबंध बना ही रहता है और समयो की क्या कथा है। क्यों न हो, जब जगतत्राता, विश्वविधाता तक का नाम परमतत्व है-'योगिन परम तत्वमय भासा', वेदो तक मे उसके लिए 'सत्' शब्द का प्रयोग किया गया है, 'तत्वमसि' 'ततसत' इत्यादि, जिसका नाम रूप गुण स्वभाव सभी गंगे के गुड़ का सा स्वादु रखते हैं तब हम कहां तक इस अक्षर के स्वादु को लिख सकेंगे। अतः अपने रसिकों को केवल इतनी सम्मति देते हैं कि जैसे बने तैसे अपने देश, जाति, भाषा, आदि के हित में नित्य दत्तचित्त रहा करें तथा दिन रात एतद्विषयक सभा कमेटियो में उत्साह के साथ नृत्य करने को तत्पर रहें । नेशनल कांग्रेस ऐसी समाओं की साज है और सत्य के प्रताप से प्रतिवर्ष उसकी वृद्धि होती रहती है । इसका अधिवेशन अब की साल बंबई मे होगा। अतएव सब देशहित के तत्ववेत्ताओ को चाहिए कि अभी से उसकी चिता मे लगे रहैं जिसमे समय पर हर ओर से डेलीगेटों का ताता बंध जाय । हे सात, नरतन का कर्तव्य यही है। खं० ५, सं० १२ (१५ जुलाई, ह. सं. ५)