पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२२९

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ईश्वर को बचम] २०७ इच्छा होने के साथ ही हमारे अंतःकरण को यह विश्वास हो जाता है इसमें ईश्वर अवश्य सहायक होंगे, संसार भर को अथवा हमारे देश जाति कुटुंब का अवश्य हित होगा, चाहे कोटि बिध्न पड़ें, चाहे अर्बुद कष्ट एवं हानि हों पर सिद्धि में शंका नहीं है, अथवा सिद्धि चाहे जब हो पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसका अनुष्ठान आनन्दपूर्ण है-जैसे गौरवरभा, धर्मश्रद्धा, सुरीतिसंचार, विद्याप्रवार, सच्चे भातृभाव का उद्गार, यह सब ईश्वर ही के बचन हैं। जब हम ईश्वर के साथ सच्चा प्रेम अथच ईश्वर की सृष्टि के साथ अकृत्रिम स्नेह करते हैं तब हमारा हृदयबिहारी सदा हमें ऐसी बातें बतलाया करता है जिनसे प्राणहानि होने पर भी अकथ्य आनन्द लाभ होने का दृढ़ निश्चय रहता है। पर यह बातें केवल इंश्वर के अभिन्न मित्र ही सुन समझ सकते हैं। साधारण लोगों को परमात्मा केवल कमाने खाने, गृहस्थी चलाने आदि की युक्तियां बतलाया करता है जिससे उनकी जीवनयात्रा में कोई बड़ा बिघ्न न पड़े। महात्मा कबीर कहते हैं 'हरि' जैसे को तैसा है'। संसार में जितने जीवधारी हैं उनको ईश्वर उन्हीं के अनुकूल उपदेश करता रहता है। चोर के जी में ईश्वर चोरी करने की बातें बतलाता है, धन के स्वामी को अपना माल ताकने की युक्ति समझाता है । जो साहजी, ईश्वर का वचन न मान के धन से गाफिल रहेंगे तो चोर साहब सारी पंजी उड़ा ले जायेंगे और जो चोर राम परमेश्वर की बातों पर ध्यान न दे के जागने वाले के घर जायंगे तो अपने किये का फल पावेंगे। ऐसे २ अनेक उदाहरणों से आप समझ सकते हैं कि ईश्वर का वचन वही है जो हर एक के हृदय में उसकी भावना के अनुसार हर समय गूंजा करता है । यही ईश्वर को आज्ञा, वुह स्वाभाविक वृत्ति है। जब भोजन करने की आज्ञा होती है तब किसको सामर्थ्य है कि न खाय ? न खाय तो आज्ञा भंग करता है और उसी समय दंड पाता है । अर्थात् भूख के मारे तिलमिला जाता है। नींद, भूख, प्यास, दुःख, सुख इत्यादि उसकी जीवंत आज्ञा हैं, जिनका पालन करना ही सबके लिये श्रेयस्कर है, नहीं तो जीवन दुःखमय हो जाता है। अपने निज मित्रों को परमेश्वर देशोदार और प्रेम प्रचारादि की आज्ञा दिया करते हैं जिनके माने बिना उन सत्पुरुषों का भी क्षण भर निर्वाह नहीं है। ऐसी २ उसको अनंत आज्ञा हैं जिनका वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, इशारा मात्र हमने कर दिया है । जितना अधिक सोचिएगा उतना ही आपको ज्ञात होता जायगा। यों ही उसको बनाई पुस्तकें भी अगणित हैं पर हमें केवल दो पोथियां उसने दो है । एक का नाम है दृश्यमान जगत अर्थात् भूगोल खगोल और दूसरी का नाम है आंतरिक सृष्टि अर्थात् मन, बुद्धि, आत्मा, स्वभाव आदि का संग्रह । इन्ही दोनों पुस्तकों को लाखों बरस से, लाखों लोग विचारते आए हैं पर किसी ने इतिश्री नहीं की । अस्नु जितना हो सके उतना आप भी विचारते रहिए, इसी में कल्याण है। हाँ, हमारे इतने लिखने पर यदि कुछ रुचि उपजी हो तो कृपा करके यह बतलाइए कि आपको ईश्वर बहुधा कैसी बातें बतलाया करते हैं? आपको किस प्रकार की आज्ञा दिया करते हैं ? आपने उनकी दोनों पुस्तकों को कितना समझा है? खं० ६, सं० १ (१५ अगस्त ह० सं० ५)