पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३१

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बान] २०९ ने 'नरो वा कुंजरः' कहा। पराशर ऐसे धर्मज्ञ का योजनगंधा पर चित्त चल आया। पर हा, दया की उस काल में इतनी श्रद्धा थी कि भगवान बुध ने हिंसा प्रचार करने बाले वेद मंत्रों तक का तिरस्कार करके 'अहिंसा परमो धर्मः' का डंका बजाया। अब कलियुग में न सत्य का बल है, म शौच का निर्वाह है, न दया में जीव है। पर दान का अब भी अभाव नहीं है। धर्म का यह चरण इतना हढ़ है कि कलियुग के तोड़े भी न टूट सका। इसको धर्म का चरण क्या यदि धर्म का रूप ही कहें तो भी विरुद्ध न होगा। आप चाहे जैसे खोटे कर्म करते रहिए कुछ विता नहीं, परन्तु अवसर पर चार पसे किसी ब्राह्मण के हाथ धरिए उसी समय धर्ममूर्ति, धर्मावतार की पदवी पा जाइएगा। जब ग्रहण पड़ते हैं तब भड्डरी और डोम भी यही कहते हुए फिरा करते हैं कि 'धरम करो।' इसका तात्पर्य यही है कि कुछ देव । अब विचारने की बात है कि सर्वोच्च ब्राह्मण से लेके अस्पश्यं डोम तक जिसको धर्म कहते हैं वुह धर्म क्यों न होगा? हमारे यहां यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है कि 'दया धर्म को मूल है, नर्कमूल अभिमान । तुलसी दया न छोड़िए, जब लग घट में प्रान ।' इसमें भी दया से यही अभिप्राय है कि दीन दाखियों को कुछ देना। सब प्रकार की पवित्रा शदता) भी दान से होती है। घर साफ न हो, दो आने मजदूर को दीजिए, झक्क कर देगा। शरीर मैला हो, नाई अथवा कहार को दो पैसे दीजिए, नहला धुला के शुद्ध कर देगा। मन शुद्ध न हो, काई धेली रुपये की 'वैराग्य शतक' या तदीय सर्वस्व' आदि पुस्तक मंगवा के पढ़िए या किसी महात्मा पंडित को कुछ भेंट दे के उपदेश सुनिए, सब दुबिधा जाती रहेगी। तबीयत रंजीदा हो, किसी चन्द्रबदनी को दो एक रुपया दे के घटे आध घंटे उसके हाव भाव गान तान का स्वादु लीजिए, सब दुःख जाता रहेगा। सत्य की परीक्षा भी रुपए ही पैसे के मुआमिले में होती है। ठीक समय पर लेन देन बेबाक रखिए। देने लेने में चार पैसे की समाई रखिए । सब कोई आपको सच्चा समझेगा। सारांश यह है कि सत्य, शौच और दया सब दान ही के अंतर्गत हैं । फिर दान को धर्म का स्वरूप कहना क्या अत्युक्ति है ? अब यह वर्णन करना रह गया कि यदि दाम ही धर्म है तो दान से ईश्वर से क्या संबंध है ? हां, दान ईश्वर को इतना प्रिय है कि ईश्वर दिन रात दान किया करता है। कौन आस्तिक है जो देह, प्राण, अन्न, वस्त्र, ज्ञान, बुद्धि, पुत्र, मित्र, भक्ति, मुक्ति आदि को ईश्वर ही का प्रसाद न मानता हो ? ईश्वर के सिवा जन्मदाता, अन्नदाता, सहाय- दाता दूसरा है कौन ? ईश्वर ही तो महादानी है । उसो का दिया हुआ तो सब पाते हैं एवं उसी की दी हुई वस्तु हम तुम दान करते हैं । वुह महादाता दाताओं को प्यार भी करता है, कि जो कोई अपना मम परमेश्वर को दे देता है, परमेश्वर उसे प्रेमसुधा का दान करते है। जब जगदीश्वर स्वयं दानी हैं और दानियों के हितकारक हैं तो संसारी जीवों का तो कहना ही क्या है ? ऐसा कौन है जो दान पा के आनंदित न होता हो अपच दान दे के यश और सुख न पाता हो ? पर दान के योग्य पदार्य और दान के पात्र का विचार न रख के दाता को ठीक फल नहीं होता, क्योंकि प्रेम के बिना जितनी