पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२१. [ प्रतापनारायण-पंचावली बातें हैं सब में बिना विचारे हाथ डालना कष्टकारक होता है। इससे यदि दान का पूरा मानन्द चाहो तो सोच समझ के दान किया करो। हमारे पूर्वजों ने जो देश काल वर्णन किए हैं वुह सब ठीक है,पर इस काल में न इतने श्रद्धालु दानी हैं न इतनी विद्या है, इससे हम देश का अर्थ केवल भारत और इंग्लिस्थान समझते हैं, जिन से सदा काम रहता है, और काल के लिए कोई नियम नही समझते हैं। सदा सब काल देते रहना ठीक है। रहा दान का फल, सो अगले लोगों ने अधिकतः स्वर्गप्राप्ति के लिए दान करना बतलाया। पर हमारी समझ में स्वर्ग का अर्थ सुख है अर्थात जिसमें अपने मन, कुटुंब, जाति और देश को सुख मिले वैसा ही दान करना ठीक है। मरने पर जो कुछ होता है तो उन्ही लोगों को स्वर्ग, मुक्ति, कैलाश, बैकुंठ सब मिलेंगे जो देश के लिये दान करते हैं । इससे अधिक लिखना व्यर्थ है। केवल दान्य वस्तु और दान पात्र सुनिए।। खं० ६, सं० १ (१५ अगस्त ह. सं०५) देय वस्तु ___ संसार में जितने पदार्थ देखे सुने और समझे जाते हैं सब परमात्मा ने मनुष्य को दान किए हैं, और मनुष्य की सामर्थ्य है कि जितनी वस्तु अपने अधिकार में रखता है दूसरों को दान कर दे। सच्चो उदारता भी यही है कि अपना तन, मन, धन दूसरों को देता रहे । यदि विचार के देखिए तो वास्तव में जगत का एवं तदंतःपाती समस्त सामग्री का स्वामी सच्चिदानंद है। सब को सब कुछ दिया भी उसी ने है। अतः मनुष्य को देने में आगा पीछा करना व्यर्थ है। भाई, जो तुम्हारी निज की वस्तु हो वुह न दो, पर यह तो बताओ कि तुम्हारा है क्या ? शरीर पंचतत्व का है रुपया पैसा खनिज पदार्थ का है वस्तु रुई ऊर्णादि के हैं, मूल में सब कुछ परमेश्वर का है। फिर देने में हिचिर-मिचिर क्या-"पूंजी पूरे साह की जस कोऊ करि लेय"। लड़का पैदा होता है तो कटिसूत्र तक नहीं पहिने होता । पास कोड़ी भी नहीं होती। मनुष्य मरता है तब भी वैसे हो पृथिवी, जल अथवा अग्नि के मुंह में चला जाता है । हाड़े की कौड़ी साथ ले जाता है न तांबे का पैसा । हो जब तक यहां रहता है। तब तक थोड़े बहुत पदार्थों का भोग कर लेता है। इससे यह तो प्रत्यक्ष है कि 'आदि संग आई नहीं, अंत संग नहिं जाय । बीच मिली बीच गई, तुलसी झखै बलाय'। हम चाहे कोटि उपाय करें पर ऐसा कभी किसी ने न सुना होगा कि जितना, जो कुछ हम चाहते हैं उतना प्राप्त हो जाता हो । कौन नहीं चाहता कि जगत भर की संपत्ति, सुख, सुजस, मुझे 'पस जाय ? कौन नही चाहता कि मेरे बराबर किसी बात में कहीं कोई न देख पड़े ? यदि सभी लोग संसार १. देखिए आगे 'देयवस्तु' और 'दान-पात्र' शीर्षक रचनाएँ।