पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२१२ [ प्रतापनारायण-यावतो सकल पदार्थ दान करते रहिए, पूर्ण फल के भागी हो जाइएगा। बिना जी दुखाए फेर लेने की इच्छा से उचित ब्याज पर गरीब भलेमानस को ऋण देना भी दान है। कोमलता के साथ काम कराने की इच्छा से किसी को नौकर अथवा मजदूरी पर रख लेना भी दान है। अपने पास खाने का सुभीता न हो तो साधारण लोगों से कुछ ले के (जितना देते उन्हें अखर न हो ) उनके बालकों को विद्या पढ़ाना एवं कोई गुण सिखाना भी दान है। किसी निबंल व्यक्ति को एक अथवा अनेक अत्याचारियों के हाथ से कल बल छल कुछ ही करके बचा लेना दान है। किसी को कोई बुरी लत छुड़वाना दान है, क्योंकि ऐसे २ कामों से दूसरों को उचित सहायता मिलती है । कहाँ तक कहिए, समझ बूझ के साथ जाति, धर्म, प्रतिष्टा, धन, मान, प्रान, सर्वस्व तक दान करना उत्तम है। कोई गाय, भैंस, बालक, वृद्ध, अंधा, पंगु मोहरी में पड़ा हो और बिना हमारे निकाले न निकल सकता हो त. कपड़ों समेत नाली में घुस के उसे उबार लेना, देश में विद्या गुण कला कौशल फैलाने के लिए जहाज पर चढ़ के, सब छुवाछूत गंवा के, बिलायत जा के,जातिहित साधन करना इत्यादि तो हई क्या लोक परलोक सब त्याग के पराया भला करना दान है। स्वामी रामानुज जी ने गोष्टी पूर्णाचार्य जी से ब्रह्म विद्या सोखी थी। उस समय आचार्य ने प्रतिज्ञा करा ली थी कि किसी को न बतावेंगे पर ज्यों ही सीख चुके त्यों ही समस्त शिष्यमंडली को बतलाना आरंभ कर दिया। यह समाचार पा के पूर्णचायं क्रुद्ध होके कहने लगने कि "तुमने गुरु के वाक्य उल्लंघन किए हैं अतः नक जाओगे" । इस पर परमोदार शेषावतार श्रीयतिराज ने कहा 'पतिष्ये एक एबाह नरक गुरु पातकात् । सर्वे गच्छन्तु भवतां कृपया परम् पदः'। सच है, दान इसी का नाम है कि परोपकाराणि नर्कसे भी न डरना । जब हमारे माननीय महात्मा यहाँ तक उदाहरण दिखला चुके हैं तो दूसरी वस्तु कौन सी है जो पात्र के देने योग्य न हो । हमारे पूर्वजों ने बड़ी भारी बुद्धिमानी से जाड़े में तिल, कंबल, इंधनादि का दान, ग्रीष्म ऋतु में जल, छत्र, उपानहादि का दान बतलाया है। इनमें बहुधा योग्यायोग्य का विचार नहीं भी अपेक्षित है । उस ऋतु में वे वस्तुएँ जिसे दीजिएगा वही सुख पावेगा। पर उसमें बिना विचारे बहुत से दानपात्रों का बिमुख रह जाना एवं जिन्हें आवश्यकता नहीं है उनका उड़ा ले जाना संभव है । विशेषतः कन्या और गऊ तो कुपात्र को देना ही न चाहिए । इसी से हमारे प्रेमशास्त्र की आज्ञा है कि सबसे बड़ा मम का दान है। प्रत्येक दान में मन लगा के देख लिया कीजिए कि देय वस्तु और दानपात्र दोनों ठीक है कि नहीं। बस सारे दान मुफल हो जायेंगे। यदि कुछ देने की सामान भी ही तो भी सेंत मेंत में मानसिक पुन्य मिलता है। पर देखिए, दान दे के अपने लिए फल की माथा करना वणिग्वृत्ति है। धर्म चाहो तो केवल पराया भला करने में देतचित रहो। इसी में सब कुछ है । जब मन दे दीजिएगा तो कोई वस्तु देते हुए न अखरेगी। मन दे के यदि और कुछ न भी दे सकिए तो भी दानपात्र परम संतुष्ट रहेगा । अतः सब दशाओं में दानपात्रों की दशा पर दृष्टि देते रहो। इससे इतना महान् पुन्य होगा कि 'नर को बस करिबो कहा, नारायण वश होय' । बस दृष्टि और मन दे दीजिए फिर दान का