पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३५

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स्वार्थ ] २१३ सर्वस्व आपके अधीन हो जायगा। दूसरी वस्तु यदि आप न दे सकें तो आपके कहने से दूसरे लोग देना सीख जायंगे। उस दशा में आपको विश्वास हो जायगा कि मन का दान करने वाला दाता ही नहीं बरंच दाताओं का गुरु है और उसी दशा में हम आप से कहेंगे कि अमुक को कुछ दान कीजिए और कुछ न हो सके तो वचन मात्र से उपदेश ही का दान करते रहिए। इसमें भी एक न एक दिन बड़ा उनम फल प्राप्त होगा। इस समय अधिक न हो सके तो हमारे इस वचन पर केवल कान दीजिए (यदि ध्यान दीजिए तो अत्युत्तम) कि दान अति उत्तम कृत्य है, उसमें भी मन दान सब दानों का मूल है । उसके कारण सारा संसार दान में देने के योग्य दिखलाई देगा। यहां तक कि दाता लोग परमपद का दान कर सकते हैं,पात्र होना चाहिए । एक प्रेमी का वचन है कि एक महात्मा ने हमें परमतत्व परमात्मा दान में दे दिया। यह बात यदि अभी न समझ में आवे तो कुछ दिन कुतर्क छोड़ के प्रेमशास्त्र पढ़िए,तब निश्चय हो जायगा कि परमेश्वर तक दान में दिया जा सकता है दूसरी बात की तो बात ही क्या है। पर इतना स्मरण रखिए कि वुह 'क'मकतु मन्यथा कतु समर्थ' है, इससे दाता, दानपात्र एवं दान का विषय सब हो जाता है, पर पात्र मिलने पर। पर यह विषय गूढ़ है इससे इस विषय में तो हम इतनी अनुमति मात्र दे सकते हैं एकाग्रचित्त हो के प्रेमदेव से प्रार्थना करो तो कदाचित वुह प्रेमसिद्धांतियों के दान का ज्ञान दें । हो, यदि हमारे लेख से दान को सामग्री समझ में आ गई हो तो दान के पात्र भी ध्यान में धर रखिये । खं० ६ सं० २ (१५ सितंबर ह. सं. ५) स्वार्थ ___ इस गुण को हमारे पुराने ऋषियों ने बुरा कहा है, पर हमारी समझ में इस विषय में उनका कहना अप्रमाण है, क्योंकि जो जिस बात को जानता ही नहीं उसके वचनों का क्या प्रमाण ? बन में रहे, कंद मूल खाए, भोजपत्र पहिने, पोथियो उलटते व राम २ स्याम २ करते जन्म बिताया। न कभी कोई धंधा किया, न किसी को नौकरी को, न किसी विदेशी से काम पड़ा, फिर उन्हें स्वार्थ का मजा क्या मालूम था ? यदि कहिए कि नवीन ऋषियों में महाराज भर्तृहरि ने भी तो 'तेमोमानुष राक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघन्तिये' लिखा है, तो हम कहेंगे उन्होंने केवल पुराने लोगों को ही में ही मिलाई है, या जान बूझ के धोखा दिया है, नहीं तो स्वार्थ कोई बुरी वस्तु नहीं है। सदा से सब उसी का सेवन करते आए हैं । हिंदुओं का राज्य था तब ब्राह्मण चाहे जो करें अदंड्य थे, क्योंकि राजमंत्री तथा कवि यही होते थे, इससे अपने को सब प्रकार स्वतंत्र बना रखा था। यह स्वायं न था तो क्या था? मुसलमानी अमलदारी में भी राजा कर सो