पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२१४ [प्रतापनारायण-ग्रंथावली न्याव था। बादशाह का जुल्म भी ऐन इंसाफ समझा, उसमें भी स्वार्थ हो का डंका बजता था। आजकल अंगरेजी राज्य में तो ऐसा कोई काम ही नहीं है जो स्वार्थ से खाली हो, नहीं तो दो चार बातें बतलाइए जो केवल प्रजा हो के हितार्थ की गई हों। कोई काम बतलाइए जिसमें हिंदोस्तान की महान हानि के लिए इंग्लिश जाति का छोटा सा लाभ भी उठा रखा गया । चाहे जितना सोचिए अंत में यहो कहिएगा, कोई नहीं। फिर हम क्या बुरा कहते हैं कि 'स्वार्थ में बुराई कोई नहीं सभी सदा से करते आए हैं।' यदि महिदेवों (ब्राह्मणों) और दीन दुनिया के मालकों (बादशाहों) हमारे गौरांग प्रमुओं को मनुष्य समझिए तो रामायण में देवताओं का चरित्र पढ़िये । रामचंद्र लक्ष्मण सोता को चौदह वर्ष वन २ फिराया, भरतजी को अयोध्या में रख के उपवास कराया, दशरथ जी के प्राण ही लिए । क्यों ? स्वार्थ के अनुरोध से । गोस्वामी जी ने खोल के कही दिया है 'माए देव सदा स्वारथी ।' जब देवताओं की यह दशा है तब मनुष्य स्वार्थ परता से कैसे पृथक रह सकता है । सच पूछो तो जो लोग स्वार्थ की निंदा करते हैं वे स्वार्थ ही साधन के लिए दूसरों को भकुआ बनाते हैं। दूसरों को दया,धर्म, सत्य, न्याय, निःस्वार्थ इत्यादि के भ्रमजाल में न फंसावे तो अवसर पर अपनी टही कसे जमा । इससे हमें निश्चय हो गया है कि चतुर बुद्धिमान नीतिज्ञ पुरुषों के लिए स्वार्थ कभी किसी दशा में अत्याज्य नहीं है। जो लोग दूसरों को परस्वारथ सिखाते हैं वे तो खैर अपना काम चलाने के लिए लोगों को फुसलाते हैं पर जो उनकी बातों में फंसकर परस्वार्थी बनने का उद्योग करते हैं वे नेचर के नियम को तोड़ते हैं अथच अपने सुग्व, संपत्ति, सौभाग्य से मुंह मोड़ते हैं। नहीं तो बड़े बड़ों में निःस्वार्थी है कौन ? क्या देवता लोग राक्षसों का भला चाहते हैं ? क्या महात्मा लोग नास्तिकों की खैर मनाते हैं ? क्या स्वयं परमेश्वर.अप्रेमिकों से प्रसन्न रहैं ? फिर परस्वारथ कहाँ की बलाय है ? सब स्वार्थ तत्पर हैं । हां, अपने २ कुटुंब, अपनी जाति, अपने देश की जूठन काठन थोड़ी सी इतरों को भी देना चाहिए, जिसमें यश हो । परस्वार्थ ऐसी मजेदार चीज को बुरा समझ के उससे दूर रहना निरी मूर्खता है। जो लोग बड़े त्यागी बैरागी, भक्त विभक्त होते हैं वे तो स्वार्थ का छोड़ते ही नहीं। वे दुनियों के सुखों को छोड़ के महासुख स्वरूप सच्चिदानंद को चाहते हैं अतः बड़े भारो स्वार्थसाधक हैं। फिर गृहस्थी करके, दुनियां में रह के' निःस्वार्थ या परस्वाथं पर मरना कहां की बैलांच्छ है। स्वार्थ न हो तो संसार की स्थिति ही न हो। बड़े २ परिश्रम करके जिन उत्तम बातों को लोग संचित करें वुह दूसरे को सौंप दें, दूसरा तीसरे को सौंप दे, इसी तरह होते २ बोई दिन में किसी के पास कुछ रही न जाय । इसी से कहते हैं "स्वार्थ समुद्धरेत्प्राज्ञः" । हाँ बहुत ही न्यून स्वार्थ बुरा है, "आप जियंते जग जिये कुरमा मरे न हानि" का आचरण निदित है। इससे अधिक से अधिक स्वार्थ बढ़ाते रहना चाहिए । अपने ही लिए स्वार्थी म हो के अपने संबंधी मात्र का स्वार्थ करना चाहिए। अपने देश के स्वार्थ के लिये दुनिया भर को कैसी ही हानि हो, कैसा ही कर्तव्याकर्तव्य कर उठाना चाहिए ।