पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२१६ [ प्रतापनारायण-अन्यावली की नाक ऐसी मोम को नाक अथच ककड़ी खीरा की बतिया है, या भलमंसी कोई ऐसा बड़ा परमेश्वर से भी चार हाथ ऊंचा देवता है जिसके डर से पाप को पुन्य, हानि को लाभ, दुःख को सुख कह रहे हो। एक कल्पित शब्द के पीछे बुद्धि का आँखों में पट्टी बांधना, अपने हाथों पांव में कुल्हाड़ी मारना, देख सुन के, सोच समझ के, जान बूझ के, अनर्थ करना और दुःख पर दुःख सहते रहना ही यदि भलमंसी है तो ऐसी भलमंसी को दूर ही से नमस्कार है। पास आवे तो जूती है, पजार है, उस पर और उसके गुलामों पर धिक्कार है। हमें तथा हमारे मित्रों को परमेश्वर भलमंसी से दूर रक्खे । मनुष्य को चाहिए अपना भला बुरा बिचार के, देशकाल की दशा देख के, अपना तथा अपने कुटुंब, जाति, देश का जैसे बने वैसे हितसाधन करे। लोक परलोक की लना, चिता, भय को लात मार के, उल्टा सीधा, छोटा मोटा, जसा आ पड़े वैसा काम करके, अपना और अपने लोगों का धन, बल, विद्या, वैभव इत्यादि बढ़ाते रहना ही मनुष्य का परम कर्तव्य, मुख्य धर्म और सच्ची भलमंसी हैं । इतिहास हमें सिखलाता है कि जिन लोगों ने अपनी दशा को उन्नत किया हैं उन्होंने ऐसा ही किया है। कविवर राजर्षि भर्तृहरि जो भी ऐसी ही आशा करते हैं—'क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि चपर्यंक शयनं, क्वचि- च्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदन रुचिः । क्वचित् कंथाधारी क्वचिदपि च दिव्यां- बरधगे मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्' नीतिविदाचर चाणक्य जी भी यही कहते हैं "अपमानंपुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्टतः। स्वकायं साधयेद्धीमान् कायं- भ्रंशोहि मूर्खता"। बस वास्तविक भलमंसी यही है। बरंच ऐसे ही बर्ताव से भलमंसी उत्पन्न होती है । इसके अतिरिक्त सब भलेमानस सदा दिन २ दूनी दीनता के दास होते हैं और यार लोग चपत मार के, टोपी उतार के, उनकी भलमंसी झाड़ते रहे हैं। जो माज भलेमानसों के देवता, पितर, ऋषि, मुनि, पोर, पैगंबर, मान्य पूज्य कहलाते हैं बे यदि अपने समय में आज कल की भांति भलमंसी निभाते तो कभी यह गौरव न पाते। इससे हमारे पाठकों को उचित है कि भलमंसी की ममता छोड़ें, शेखचिल्ली के बिचार समझ के उससे मुंह मोड़ें और येन केन प्रकारेण स्वार्थ साधन का आगधन करें। यही भलमंसी है, भलमंसी चाहो तो स्मरण रक्खो कि भलमसी बलमंसी कुछ मही, अपने काम से काम रखना ही भलमंसी हैं। खं. ६, सं• २ ( १५ सितंबर १० सं०५) धर्म और मत धर्म वास्तव में परमानंदमय परमात्मा एवं उनके भक्तों से प्रेम तथा संसार में क्षेम- स्थापन का नेम मात्र है। जितने महात्मा हो गए हैं सब का यही सिद्धांत रहा है। इसी के अंतर्गत वेद, शास्त्र, पुराण, पाइबिल अथवा कुरमान आदि किसी धर्मग्रंप मथच किसी आचार्य की सत्यता पर विश्वास रखना, यथासाध्य उन कामों से बचे