पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२३९

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दान पत्र] २१७ रहना जिन्हें बुद्धिमानों ने बुरा ठहराया है, पक्षपात को दूर रख के जिससे पूछियेगा यही उत्तर पाइयेगा कि वास्तव में धर्म यही है, और हम निश्चयपूर्वक कहते हैं कि यदि इस सर्वसम्मत धर्म पर सब मतों के मानने वाले चलते होते तो कभी, किसी देश में, कुछ भी,विघ्न न होता । पर जिन्हें लड़ना होता है वे अच्छी बातों में भी एक न एक बुराई निकाल लेते हैं। जब जहां कोई अनर्थ होने वाला होता है तब वहां उपर्युक्त धर्म के स्थान पर मत का आदर होता है। प्रत्येक समूह को यही सूझता है कि केवल हमारे यहां की पोथी और मतप्रवर्तक एवं आन्तरिक वाहिक व्यवहार अच्छे हैं, सारे संसार के बुरे । अन्तःकरण चाहे अन्यों की किसी बात में कोई उत्तमता भी समझे पर कोई न कोई युक्ति ऐसी निकालना चाहिए जिसमें दूसरे के मुख से बात न निकले और जगत् भर के लोग हमारे ही चेले हो जावं । कोई आग्रह के मारे माने वा न माने पर हम दृढ़ता सहित कह सकते हैं कि मत का लक्षण एवं मत वालों का हार्दिक मनोर्थ इतना ही मात्र है, जिसका फल यह होता है कि जिन महात्माओं ने जन्म भर सबको सदुपदेश दिया है वे गाली पाते हैं। जिन ग्रंथों ने देश के देश पवित्र एवं उन्नत किये हैं वे कलुपित व्हगाए जाते हैं और भाई २, पड़ोसी २ में सदा जूता उछला करता है। बश होता है तो तलवार चला करती है नही वाक्यवाण तो चला ही करते हैं। किसी न किसी से मन नहीं मिलता। इसी से समुदायों की सारी बातें वस्तुतः सत्या- नाश होती रहती हैं। पाठक महाशय, कृपा करके यह तो बतलाइये कि इन दोनों बातों में आप ग्रहण करने योग्य किसे समझते हैं ? जो धर्म की रुचि हो तो इस बात को गांठ बाँधो कि अपने विश्वास को आंखें मूंदे मानते रहो, दूसरों के सिद्धांतों से प्रयोजन न रक्खो। कोई इस विषय में झगड़ने आए तो हार मान लो, और जो मत प्यारा हो तो मरकहा बैल की नाई बेझते फिरो औ जीवन को ऐसा न्यथं बना लो जैसा अनंता (बाहु भूषण ) का सुवर्ण होता है। प्रत की बदौलत न तुड़ाने के काम का न गलाने के। खं० ६, सं० ३ ( १५ अक्टूबर ह. सं० ५) दान पात्र सन, मन, धन एवं सर्वस्व दान कर देने के सच्चे और सर्वोत्तम पात्र अपने कुटुंबी, सजाती एवं स्वदेशी हैं। जिस रीति से जब जो कुछ देना हो इन्हीं को देना चाहिये । तिसमें भी जिससे जितना अधिक निकटस्थ और गंभीर संबंध हो उसी को अधिक देना चाहिये । जब स्त्री, पुत्र, माता, पिता, भाई, बहिन, चचा, ताऊ, फूफा, मामा आदि का भलीभांति भरण पोषण होने से उबरे तब अपने गोत्र वालों, उनके पीछे जाति वालों, उनके भी पश्चात् अपने ही देश के अन्य जाति वालों को देना उचित है। इसमें भी अंधे, लूले, लंगड़े आदि को, धर्म विद्यादि के प्रचारकों को, गुणियों को, कारीगरों