पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२४०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२१८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली को, देने से विशेष फल है, पर हों अपनेही देश के । "उदारचरितानांतु वसुधैवकुटुंबकम्' के हम विरोधी नहीं हैं, पर यह कभी न करना चाहिये कि 'बाहर वाले खा गये घर के गावे गीत'। नामवरी के लालच में निज के लोगों का हक अन्यों को देना दान नहीं है, बरंच ऐसो मूर्खता है जिसका फल थोड़े ही दिनों में प्रत्यक्ष हो जाता है। जिन दिनों यहाँ अंग्रेजी राज्य का आरंभ और ईसाई धर्म की प्रबलता थी उन दिनों गुरुघंटालों ने प्रसिद्ध कर रखा था कि तीष के संडे मुसंडे पं0 तथा पितृकार्य में हट्टे कट्टे महापात्रों अथच गयावालों को एवं ब्याह बरात में कहार, बांजदार, आतशबाजी, फुलवारी बनाने बालों तथाच भांड वेश्याओं को देना वृथा है। पर हमारी समझ में यदि अपने तथा कुटुंब एवं जाति वालों से बचे तो इन्हें भी अवश्य देना चाहिये । इससे अपना धन अपने ही देश में रहता है तथा देश भाइयों को अपने २ काम में उत्साह मिलता है। परंतु विद्या और कारीगरी यषा झट्टी चमकदार वस्तुओं के मोह में फंस के घर का धन विदेश में फेंक देना निरी मुर्खता बतलाना तथा दरिद्र बुलाना है। यदि उन दिनों हमारे देशी भाई कपट मित्रों के मायाजाल में न फंस जाते, केवल राजा को कर मात्र देते, अन्य बातों में अपने स्वदेशीय मनुष्यों तथा पदार्थों एवं गुण विद्या आदि की ममता न छोड़ते, तो यह दशा कभी न होती जो आजकल भोगनी पड़ती है । मुसलमानी राज्य में अपव्यय का इतना तिरस्कार न था जितना इन दिनों है । पर उस समय देश के चौथाई से अधिक निवासी भूखों न मरते थे। कारण यह था कि देश का धन घूमघाम के देश ही में बना रहता था। पर खेद है कि लोगों के हृदय पर इस बात का दृढ़ संस्कार न था कि 'पहिले धन देहु स्वदेशिन को, उंबरे तब नेक विदेशिन को ।' हां, जो लोग धन पा के अपने कर्तव्य में न लगावें उन्हें देना आलस्य अथच दुर्व्यसन की वृद्धि करना है। पर इसमें भी इतना स्मरण रखना चाहिये कि अपना अपना ही है । दूसरे देवताओं से भी अपने यहां के बुरे लोग अच्छे । इनका देना एक दिन फलेगा पर औरों को देना निरा व्यर्थ है। धन के अतिरिक्त विद्या दान के पात्र स्वदेशीय बालक मात्र हैं। उपदेश दान सर्वसाधारण के लिये है। जो किसी बात में अपने से बड़े हों वे सुश्रूषा के भाजन हैं । को कुटुंबी अथवा एकाकी वस्तु के बिना उचित रीति से निर्वाह न कर सकते हों वे उस वस्तु के दान पात्र हैं। पर गऊ और कन्या के देते समय यह विचार कर लेना उचित है कि गृहीता उसे किसी प्रकार का कष्ट अथवा अनादर तो न करेगा एवं उसमें उसके पालन पोषण आस्वासन की सामर्थ्य है कि नहीं। यदि न हो तो अपनी ओर से निर्वाह के योग्य सहायता करना चाहिये । नहीं तो केवल कुल देख के कभी दान पात्र न मान लेना चाहिये । जो एक अथवा अनेक जन देश को भलाईका प्रयत्न कर रहे हों । वे सर्वस्व दान के पात्र हैं। पर उनके भेष में जो केवल अपना पेट पालने और मजा उड़ाने के लिये देशहितैषिता के गीत गाते हों उन्हें एवं अपने स्वार्थ के हेतु अपनायत का रूप कसते हों वे चाहे अपने सगे बाप अथवा गुरू ही हों, कुपात्र हैं। ऐसों में जिनका भेद एक आध बार खुल गया हो, वे चाहे बीस बातें बनावें पर कुछ मांगें तो धक्के के सिवा कुछ न देना चाहिए। हां, यदि यह निश्चय हो जाय कि सचमुज महादरिद्र है