पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२५

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हो ओ ओ ली है !] १-सो सही, पर उत्तम तो यह था कि ऐसे २ कामों में सहाय देते जिनसे सचमुच की मुखरूई होती । वाल विवाह की कुरीति उठाई होती-ब्रह्मचर्य की फिर से प्रथा चलाई होती. तो देखते कि कैसा रंग आता है। क्या एक दिन अवीर लगवा के हनोमान जी के भाईवन्द बन गए ! जहाँ मुंह पर पानी पड़ा फिर वही मोची के मोची ! आए क्या सब ही ओर से गए, यह कौन किससे कहे ? यहां तो आर्यमंतानों को हिंदू, काला आदमी, बुतपरस्त, काफर, बेईमान, अवसिविया ( Half Civilized ), इत्यादि अवाच्य कनीरों के सुनने की लत पड़ गई है। इनकी समुझ मे गाली तो खाने ही को बनी है ! जहाँ घर ही में जूता उछलौअल है-हम तुम्हें पोप का चेला कहैं, तुम हमें दयानन्दी गपाष्टक वाला बनाओ, फिर भला बाहर वाले ( ईसाई मुसलमान ) क्यों न लथा ? अरे मतवाले भाइयो! तुम्हें यह क्या सूझी है कि तुम शैव होकर वैष्णव मात्र की छाँह न देख सको? ईश्वर के सच्चे प्रेमी को भी राख न लगाने के पीछे 'तन्त्यजेद्यन्न्यजम् यथा' कहो ? क्यों महाराज घटाटोप टंकार रामानुज स्वामीजी ! अर्धपंड न लगावे और हाथ न दगावे पर विद्वान सन हो, तो भी वह निरा राक्षस है ? यदि श्रीमद्रामानुजस्वामी की तुम्हारी ही सी समझ होती तो उनके उपदेश द्वारा लाखों लोगों का सुधरना सबंया असंभव था ! हाँ, मिस्टर पंचमकारानन्द साहिब से मैं डरता है, कही मार न खायं ! पशु और कंटक तो बनाते ही हैं, पर इतना तो फिर कहे बिना नहीं रहा जाता कि जो 'वेद शास्त्र पुराणानि निलंना गणिका इव' हैं तो केवल आप कहते और छिप २ के मनमानी अंधाधुध मचाने से 'शाम्भवी विद्या गुप्ता कुलवधूरिव' कैसे हुई जाती है ? यती जी महाराज ! जो बहुत फूंक २ पांव धरते थे उन्होंने माहीधरी टीका देख के यह बंपर की उड़ाई कि-'यो वेदस्य कर्तारो भाँड धतं निशाचरा।' यह भी न सोचा कि--'अहिंसा परमोधर्म.' जिसके ऊपर हमारे मत की नीव है, किसी वैदिक हो का बचन है या जैनो का ? हमारे यहाँ के सब के राब ही यद्यपि जानते हैं कि जैनी किसी दूसरे देश से नहीं आए, चाल ढाल व्योहार हमारा ही सा उनके यहाँ भी है, परंतु तो भी-हस्तिनापीड्यमानोपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् - इस हागड़े की बात को वेद की ऋवा मान बैठे हैं ! अरे भाई! धर्म और बात है और मतवालापन और बात है। पर तुम समझते तो फूट और बैर तुम्हारे देश का मेवा क्यों हो जाता, जिसका यह फल है कि तुम–'निबरे की जुइया सब कै सरहज'-बन गए, अन्य देशियों की गुलामी करनी पड़ी। अस्तु, यह दुःख रोना कब तक रोवें ? अब जरा स्वांगों की कैफियत सुनिए । चाहै निरक्षर भट्टाचार्य हो, चाहै कुल कुबुद्धि कौमुदी रट डाली हो, पर जहाँ लंबी धोती लटका के निकले बस–'अहं पंडितं-सरस्वती तो हमारे ही पेट मे न वसती है ! लाख कही एक न मानगे । अपना सर्वस्व खोकर हमारे घाऊयप्प पेट को टांस २ न भरै वही नास्तिक, जो हमारी बेसुरी तान पर वाह २ न किए जाय वही कृष्टान, हमसे चूं भी करै सो दयानंदी। जो हम कहैं वही सत्य है । ले भला हम तो हम, दूसरा कौन ! यह मूरत स्वामी कलियुगानंद सरस्वती शैतानाश्रम बंचकगिरि जी की, उनसे भी अधिक है । क्यों न हो, ब्राह्मण-गुरु संन्यासी प्रसिद्ध ही है। जहाँ-'मारि मुई घर