पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२५१

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काल ] २२९ एवं अनेक रूपधारी तथापि अरूप यह भी है। इसी कारण बहुत से महात्माओं ने परमात्मा का नाम महाकाल रखा है। पर हमारी समझ में जो स्वयं महत्त्व विशिष्ट है उसके नाम में महा का शब्द जोड़ना व्यर्थ ही नहीं, किंतु एक रीति से हंसी करना है। ब्राह्मण को महाब्राह्मण कहने से कोई प्रशंसा का द्योतन नहीं होता। केवल काल ही कहने से पूरी स्तुति हो जाती है । जिन्होने परमात्मा को अकाल कहा है वे भी न जाने क्या समझे थे नहीं तो जो सब काल में विद्यमान है वह अकाल क्यों ? उसे तो नित्य कहना चाहिए । काल से यहाँ हमारा अभिप्राय मृत्यु से नहीं किंतु समय से है। मृत्यु का यह नाम केवल इस लिए पड़ गया है कि उसके लिये एक निश्चित और अटल काल नियत है । पर सूक्ष्म विचार से देखिये तो सभी बातें काल के अधीन हैं । वृक्ष लगा के सीनते २ सिर दे मारिये, जब तक उसके फलने का काल न आवेगा तब तक फल का दर्शन न होगा। इसी प्रकार जिधर दृष्टि फैलाइये यही देखिएगा कि सब कुछ काल के अधीन है। बिना काल कभी कहीं कुछ हो ही नहीं सक्ता। यों उद्योग करना पुरुप का धर्म है। उसमें लगे रहो। आलस्य बड़ी बुरी बात है। उसे छोड़ो पर यह भी स्मरण रवावो काल बड़ा बली है। वह अपने अवसर पर सब कुछ करा लेता है । या यों कहिए कि आप कर लेता है । आप बड़े उद्योगी हैं पर तन मन धन सब निछावर कर दीजिए हम आपकी ओर दृष्टि भी न करेंगे, साथ देना कैसा? हम बड़े भारी आलसी हैं, पर जब पास पल्ले कुछ न रहेगा और स्वाभाविक आवश्यकताएँ सतावेगी तब विवश हो हाथ पाँव अथवा जिह्वा किसी काम में लगावैगे, जिससे निर्वाह हो। इसी से बुद्धिमान लोग कह गये हैं कि मनुष्य को काल का अनुसरण करना चाहिए-जमाने के तेवर पहिचानना चाहिए । जो लोग ऐसा नहीं करते वे या तो बीते हुए काल की दशा पर घमंड करके अपने लिए कांटे वोते हैं अथवा आगामी काल की कल्पित आशा में पड़ के हानि सहते हैं। पर यह दोनों बातें मूर्खता की हैं । हमे चाहिए कि जो कुछ करना हो वर्तमान गति के अनुसार करें। जो लोग अपने काल के अनेक पुरुषों की चाल ढाल परिवर्तित कर देने के लिये प्रसिद्ध हो गए हैं वे वास्तव में साधारण व्यक्ति न थे। उन्हें मूर्ख समझिए चाहे मनीषी कहिये, पर वे थे बड़े। किंतु उस बड़प्पन का कारण काल ही के अनुसरण पर निर्भर था। जिन्होंने यह विचार कर काम किया कि हमारे पूर्व इतने दिनों से जनता इस ढर्रे पर झुक रही है, अतः इधर ही के अनुकूल पुरुषार्थ दिखाना उत्तम होगा। उनकी मनोरथ सिद्धि बड़ी सरलता से हुई। क्योंकि जिस बात को वे चलाना चाहते थे, उसके अवयव पहिले ही से प्रस्तुत थे। इस कारण वे अपने काम में बड़े संतोष के साथ कृतकार्य हुए, पर जिन्हों ने कालचक्र की चाल और सहकालीन लोगों की रुचि न पहिचान कर, अपना काम फैलाया, वे मरने के पीछे चाहे जैसे गौरवास्पद हुए हों, उनके उत्तराधिकारियों ने चाहे जितनी कृतकृत्यता प्राप्त की हो, पर अपने जीवनकाल को उन्होंने अपमान, कष्ट और हानि ही सहते २ बिताया। वे आज हमारी दृष्टि में प्रतिष्ठास्पद तो हैं पर विचारशक्ति उनमें यह दोष लगा सक्ती है कि या तो उनमें जमाने के तेवर पहिचानने की शक्ति न थी या जान बूझ कर नेचर के साथ