पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२५४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२३२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथ.बली इनका कोई करी क्या सक्ता है ? यदि इनकी बातें कुबातें हम न सहें तो करें क्या? यह तनिक सी बात में कष्टित और कुंठित हो जायंगे और असमर्थता के कारण सच्चे जी से शाप देंगे जो वास्तव में बड़े तीक्ष्ण शस्त्र की भांति अनिष्टकारक होगा। जब कि महात्मा कबीर के कथनानुसार मरी खाल को हाय से लोहा तक भस्म हो जाता है तो इन की पानी भरी खाल ( जो जीने मरने के बीच में है ) को हाय कैसा कुछ अमंगल नहीं कर सक्ती। इससे यही न उचित है कि इनके सच्चे अशक्त अंतःकरण का आशीर्वाद लाभ करने का उद्योग करें। क्योकि समस्त धर्म ग्रंथों में इनका आदर करना लिखा है। सारे राज नियमों में इनके लिये पूर्णतया दंड को विधि नहीं है । और साच देखिये तो यह दयारात्र जीव हैं, क्योंकि सब प्रकार पोरप से रहित हैं। केवल जीभ नहीं मानतो, इससे आंय बाय शांय किया करते हैं या अपनी खटिया पर थूकते रहते हैं। इसके सिवा किमो का विगाड़ो ही क्या हैं। हां, इस दशा में भी दुनियां के झंझट छोड़ के भगवान का भजन नहीं करते, वृथा चार दिन के लिये झूठी हाप २ कुढ़ने कुढ़ाते रहते हैं, यह बुरा है। पर केवल इन्हीं के हक मे, दूसरों को कुछ नहीं। फिर क्यों इनकी निंदा की जाय ? आज कल बहुतेरे होनहार एवं यत्नशील युवक कहा करते हैं कि बुड्ढे खबीसों के मारे कुछ नहीं होने पाता । यह अपनी पुरानी सड़ी अकिल के कारण प्रत्येक देशहितकारक नत्र विधान में विघ्न खड़ा कर देते हैं । पर हमारी समझ में यह कहने को भूल है। नहीं तो सब लोग एक से नहीं होते, यदि हिकमत के साथ राह पर लाये जायं तो बहुत से बुढ़े ऐसे निकल आवेंगे जिनसे अनेक युवको को अनेक भांति मौखिक सहायता मिल सती है। रहे वे बुड्ढे जो सचमुच अपनी सत्यानाशी लकीर के फकीर अथवा अपने ही पापी पेट के गुलाम हैं। वे प्रथम तो हई के जनै ? दूसरे अब वह समय नही रहा कि उनके कुलक्षण किसी से छिपे हों, फिर उनका क्या-डर ? चार दिन के पाहन, कछुआ महली अथवा कीडों की परसीदई थाली, कुछ अमरोती खा के आये ही नहीं, कौआ के लड़के हई नहीं, बहुत जिएगे दश वर्ष । इतने दिन में मर पच के, दुनिया भर का पीकदान बन के, दस पांव लोगों के तलवे चाट के, अपने स्वार्थ के लिये पराये हित में बाधा करेंगे भी तो कितनी? सो भी जब देशभाइयों का एक बड़ा समूह दूसरे ढर्रे पर जा रहा है तब आखिर तो थोड़े ही दिन में आज मरे कल दूसरा दिन होना है । फिर उनके पीछे हम अपने सदुद्योगों में त्रुटि क्यों करें। जब वह थोड़ी सी घातें की जिंदगी के लिये अपना वेढंगापन नहीं छोड़ते तो हम अपनी वृहले वनाणा में स्वधर्म क्यों छोड़ें। हमारा यही कर्तव्य है कि उनको सुश्रूषा करते रहें क्योंकि भले हों वा बुरे पर हैं हमारे हो। अतः हमें चाहिये अदर के साथ उन्हें संसार की अनित्यता अथच ईश्वर, धर्म, देशोपकार एवं बन्धु वात्सल्य की सत्यता का निश्चय कराते रहैं। सदा समझाते रहैं कि हमारे तो तुम बाबा ही हो अगले दिनों के ऋषियों की भांति विद्यावृद्ध, तपोवृद्ध हो तो भी बाबा हो और बाबा लोगों की भांति 'आपन पेट हाहू, मै ना देहों काहू' का सिद्धांत रखते हो तो भी क्या, बुद्धता के नाते बाबा ही हो। पर इतना स्मरण रक्खो कि अब जमाने की चाल वह