पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२५६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण ग्रंथावली और प्राचीन काल के रंग ढंग से अनभिज्ञ होने के कारण जब तब कह बैटते हैं कि पुराण मिथ्या हैं, प्रतिमा पूजन वाहियात हैं, यह सब पंडितों के ढकोसले हैं । ऐसी २ बातें आदि में पादरियों ने प्रचार की थी पर यतः उनका मुख्य अभिप्राय इस देश के भोले भाले लोगों को अपनी जथा में मिलाना मात्र था। हमारे देश, जात, धर्म, भाषादि से ममता न थी इससे उनके कयन पर हमें कोई आक्षेत्र नहीं है । विशेषत : इस काल में जब कि उनका प्राबल्य बहुत कुछ क्षीण हो गया है और काल भगवान से आशा है कि कुछ दिन में कुछ भी न रखेंगे। इसके अनन्तर दयानन्द स्वामी तथा उनके सह- कारियों ने ऐमा ही उपदेश करना स्वीकार किया था। पर उन्हें भी हम कोई दोष न देंगे क्योंकि मुख्य प्रयोजन भारत संतान को घोर निद्रा से जगाना था, जिसकी युक्ति उन्होंने यही समझो थी कि कुछ कष्ट देने वाली तथा कुछ झंझलाहट पहुंचाने वाली बातें कह के चौकन्ना कर देना चाहिये । पर इस काल में परमेश्वर की दया से कुछ चैतन्यता आ चली है । अपना भला बुरा सूझने लगा है। इससे हमारे भाइयों को उचित है कि विरोव बढ़ाने वाली बातों को तिलांजुली दें और अपने को अपना समझें । हम देव प्रतिमा पर स रा धन चढ़ा दें तो भी घर का रुपया घर ही में रहेगा। ब्राह्मणों को सर्वस्व दान कर दें तो भी देश का धन देश ही में रहेगा। फिर इसमे क्या हानि है ? श्री मुरेन्द्रनाथ बनर्जी को देखिये कि न कभी किसी मंदिर में दर्शन करने जाते हैं न मूर्ति पूजकों का सा व्यवहार वर्ताव रखते हैं पर सन् १८८६ में एक शालग्राम शिला के पं छे कारागार तक हो आए क्योंकि वे भलीभांति समझते हैं कि अपने गौरव का संरक्षण इसी में है। प्रतिमा पूजन के निषेधक श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती उन दिनों जीते थे पर सुरेन्द्रो बाबू के विरुद्ध एक अक्षर भी न कहा । वरंच काम पड़ता तो मुंशी इंद्रमणि की भांति इनकी महायता में भी अवश्य कटिबद्ध हो जाते क्योंकि गौरव संस्थापन का तत्त्व उन्हें अविदित न था। यदि इन आदरणीय पुरुषों के ऐसे २ कामों से हम शिक्षा ग्रहण करें तो बत- लाइए क्या हानि है ? फिर अपनी बातों को बुरा कहके अपने भाइयों में बुरा बनना कौन सी भलाई है ? पुराण यदि सचमुच दूषित हों तो भी हमारे आदरणीय पूर्वजों के बनाए हुए हैं अतः माननीय हैं। कुछ न हो तो भी उनके द्वारा संस्कृत के अनेकानेक महाविरे मालूम होते हैं। फिर क्यों उनको निन्दा की जाय ? क्या चहारदर्वेश और राबिनमन क्रूमो की कहानियों के समान भी वे नहीं हैं, जिन के पढ़ने में लोग महीनों आंखें फोड़ते हैं ? जिन्हें विचारशक्ति से तनिक भी काम लेना मंजूर न हो उन्हें भी यह समझ के पुराणों की प्रतिष्ठा करना चाहिये कि सैकड़ों ब्राह्मण भाइयों की गृहस्थी उन्हीं से चलती है, सैकड़ों हिन्दू भाइयों को लोक परलोक बनने का विश्वास उन्ही पर मिर है । फिर एक बड़े समूह को कुंठित करना कहां की बुद्धिमानी है ? विशेषतः जो लोग चाहते हैं कि देश में एका बढ़े और देशहित के कामों में सर्वसाधारण से सहायता मिले उनके लिये अभाग्यवशतः हमारे संस्कार बिगड़ गये हैं । विदेशी भाषाओं के मारे संस्कृत का पठन पाठन छूट गया है। अपने यहां की उत्तम बातों का खोजना अनभ्यस्त हो रहा है । नहीं तो हम समझा देते, बरंच सब लोग आप समझ जाते, कि जिन सलनों ने