पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२४० [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली हैं। यदि विचार के देखिये तो प्रकृत बोर के यही सब लक्षण हैं जो हमारे सुर सेनाध्यक्ष में वर्णन किए गए हैं। १०. धनाध्यक्ष कुबेर जी नरबाहन है जिसका भावार्थ सब जानते हैं कि रुपये वाले लोग सदा आदमियों के शिर पर सवार रहते हैं। यदि इसमें हंसी समझिये तो यह अर्थ समझ लीजिए कि जो पनाति मनुष्य बाहन होते है अर्थात् अनेक मनुष्यों का कार्य संचालन करते हैं, बहुत लोगों को सहायता की दृष्टि से काम मे लगाये रहते हैं वे देवता समझे जाते हैं और शिव जी को प्रिय होते हैं । ११. यमराज का बाहन महिष है। अर्थात् जो लोग भैसा के समान वे वल खाने और कीचकांदो ( विषय वासना ) में पड़े रहने ही में प्रसन्न रहते हैं, सांसारिक एवं पारमार्थिक कर्तव्यों में मथर २ करते हुए चलते हैं ( अग्रसर नहीं होते ), थोड़ा सा काम करने पर हांफने लगते हैं, साहस छोड़ बैठते हैं तथा पराए सुख दुःख से निश्चित रह के निर्लज्जता से फूले रहते हैं अथच अपनी भी देह ( स्वत्व ) खोद २ कर खाने वालों से असावधान बरंच सुखित रहते हैं उन पर मृत्यु का देवता सदा सवार रहता है, अर्थात् उनके जीवन का उद्देश्य मृत्यु ही है, जभी मर गए तभी और ऐसों ही के लिये ईश्वर न्यायी है नोचेत् वह परम कृपालु अपने सेवकों के छोटे २ कर्मों का विचार किया करें तो किसी को कहाँ ठिकाना है ? पर ऐसे बैशाख नंदनों के लिये मरना और न्याय में फंसना हो तो सहस्रों आलसी इन्ही के आचरण ग्रहण कर बैठें क्योंकि कुछ करना धरना सब का काम नहीं है। इसी से ऐमों के शासन और इनकी दशा के द्वारा दूसरों को उपदेश मिलने के आशय से पौराणिक महात्माओं ने भगवान् का नाम न्यायकारी और प्राणहारी लिखा.है। १२. इंद्र के सहस्र नेत्र हैं अर्थात् राजा ऐसा होना चाहिए जो सब प्रकार के लोगों के समस्त भाव पर सदा दृष्टि रख सके । मिस राजा के कान होते हैं, आंखें नहीं होती, अर्थात् जिसने जो कह दिया वही मान लिया, स्वयं कुछ न देखा, उसका राजत्व चिरस्थायी नहीं रह सकता, यही शिक्षा देने के लिये देवराज अर्थात् दिव्यगुणविशिष्ट राजा अश्वा विद्वान समूह पर राज्य करने वाले का नाम सहस्राक्ष रखा गया है । सहस्राक्ष होने का कारण यों लिखा है कि अहिल्या के साथ 8ल करने के अपराध में गौतम जी ने जब शाप दिया तो इंद्र को बड़ा खेद, क्षोभ और लज्जा हुई। उसके निवारणार्थ वृहस्पति जी ने तप, व्रत, पूजनादि करा के उन चिह्नों को नेत्र बना दिया। इस आघान पर शास्त्रार्थी लोग चाहे जो तर्क वितर्क किया करें पर सच्चे आस्तिक अवश्य मानेंगे कि सच्चे जी से भजन करने पर सर्वशक्तिमान की दया से ऐसा क्यो इससे भी अधिक अघटित घटना हो सकती है एवं दोष भी गुण हो जाते हैं। पर यह सच्चे विश्वास का विषय है जो लेखनी को शक्ति से दूर है। इससे हम केवल लौकिक शिक्षा देते हैं कि इंद्र की उक्त कथा से यह बात (ज्वनि ) निकलती है कि इस प्रकार