पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६३

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पौराणिक गूढार्थ ] २४१ के लोग यद्यपि गौतम सरीखे कर्मचारियों के द्वारा शायभागी और पोछे से अपने कृत्य पर अनुतापकारी होते हैं किंतु सहस्रनयन अर्थात् दूरदर्शी और अनुः वो अवश्य हो जाते हैं जैसा कि नीतिज्ञों ने 'देशाटनमण्डितमित्रताच इत्यादि वाक्यों में कहा है। इस पर यदि कोई प्रतिमा पुराणादि के छिद्रान्वेषी हैं कि बाह रे पौराणिकों के उपदेश, तो हमारे पास यह उत्तर विद्यमान है कि किसी पुराण में इंद्र की कथा के साथ यह न हो लिखा कि उन्होंने दुराचार किया अथवा किसी को करना उदित है। फिर पुराणों को वा इंद्र को दोष लगाना अपनी बुद्धिमानो दिखलाना मात्र है। यदि मान ही लें कि देवराज का विचार ऐसा ही था तो भी पुराणकर्ता दोपी नहीं ठहर सकते बरंच उनकी अनुभवशीलता विदित होनी है । अर्थात् उन्होंने यह दिखलाया कि श्रीराम पन्द्र ऐसे ईश्वर तथा युधिष्ठिर ऐसे अनेक अवतारों को छोड़ के राज्याभिमानी लोग, यहां तक कि देवलोक तक के राजा, बहुवा ऐसे ही होते हैं ( यह बात सब कही के इतिहासों से प्रत्यक्ष है )। इस से शुद्ध धर्म जीवन के प्रेमियों को गज्य तृष्णा त्याज्य है। यदि आप कहें कि इंद्र निर्दोष थे तो गौतम ने श्राप क्यों दिया, तो हम कहेंगे कि पुराणों में गौतम को कहीं नहीं लिया कि ईश्वर हैं,पर उनका धोखा लाना कौन आश्चर्य है ! धर्मात्माओं को जिस पर ऐसी शंका होती है उस पर क्रोध आता ही है बरंच 'क्रोधोपि देवस्य बरेग तुल्यः' के अनुसार उन्हों ने अहिल्या को श्री गमवरण पंकज रज प्राप्ति के योग्य और देवेन्द्र को सहस्रलोचन बना दिया। इससे पुराण निदंकों का यह कहना बर्थ है कि उन में देवताओं और ऋपियों की निंदा लिखी है । यह अपनी अपनी समझ का फेर है। ___ सहस्रनयन ( इन्द्र ) का शस्त्र बज्र है जिसको सब जानते हैं कि बड़े २ पर्वतों तक को चूर्ण कर सकता है और वुह दधीचि मुनि की हड्डियों से बना हुआ है, जो उक्त मुनीश्वर ने देवताओं की याचना से संतुष्ट हो के अपने देह का स्नेह छोड़ के दे दी थी। इस आख्यान का यह अर्थ है कि संसार से विमुख ईश्वर और धर्म के लिये जीवन को उत्सर्ग कर देने वाले महात्माओं की हड्डियां ( आहार बिहार त्याग देने से रक्त मांस रहित शरीर ) बज्र हैं, जो उन्हें चाहता है ( सताने का उद्योग करता है ) वुह आप अपने शस्त्रों ( जीवन रक्षणोपयोगी उपायों तथा पदार्थों ) का नाश करता है-'तुलसी हाय गरीव को हरि ते सही न जाय। पर जो उन हड्डियों को प्राप्त कर लेता है अर्यात धर्मानुरागियों को सेवा सुश्रूषा से इतना प्रसन्न रखता है कि वे प्रीति की उमंग में अपनो देह तक देने पर प्रस्तुत हो जायं वुह इंद्र के समान सौभाग्यशाली हो सकता है। ३. जल और मदिरा के देवता वरुण का शस्त्र पाश है अर्थात् जो जल को भंवर में पड़ जाता है अथवा मद्यपान की जल जिसके गले पट जाती है वह फांसी पर लटके हुए मनुष्य के समान जीवन के सुखों से निराश और काल सर्प का ग्रास हो जाता है। १४. ब्रह्मा के चार मुख हैं, अर्थात् चारों वेद तथा उपवेद का तत्व, चारों वर्ग (अर्थ धर्म काम मोक्ष ) के साधन का उपाय, चारों दिशा की संचराचर सृष्टि का