पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६५

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दो २४३ कि जिन बातों को बुरा समझे उन्हें यत्नपूर्वक छोड़ दे किंतु यतः संसार की रीति है कि जब कोई जानी बूझो बात को भी चित्त से उतार देता है तो उसके हितैषियों का उवित होता है कि सावधान कर दें। इमी से हम भी अपना धर्म समझते हैं कि अपने यजमानों को यह दुर्गतिदायक शब्द स्मरण करा दें, क्योंकि 'ब्राह्मण' के उपदेश केवल हंस डालने के लिये नहीं है परंच गांठ बांधने से अपना एवं अपने लोगों का हित साधने में सहारा देने के लिये हैं । फिर हम क्यों न कहें कि 'दो' पर ध्यान दो और उसे छोड दो। इस वाक्य से कहीं यह न समझ लेना कि वर्ष समाप्त होने में केवल तीन मास रह गए हैं इससे दक्षिणा के लिये बार बार दो २ (देव २) करते हैं । हां, इस विषय पर भी ध्यान दो और हमें ऋग हत्या से शोघ्र छुड़ा दो तो तुम्हारी भलमंसो है, पर हम यद्यपि अपना मांगते हैं अपने पत्र का मूल्य मांगते हैं, तो भी पांच वर्ष मे अनुभव कर चुके हैं कि देने वाले बिन मांगे ही भेज देते हैं और नादिहंद सहस्र बार मांगने, सैकड़ों चिट्टो भेजने पर भी दोनों कान एवं दोनों आंख बंद ही किए रहते हैं। इससे हमने इस दुष्ट 'दो' के अक्षर को बोलना ही व्यथं समझ लिया है। हां, जो दयावान हमारे इस प्रण के पूरा करने में सहायता देते हैं अर्थात् 'दो दो' कहने का अवसर नहीं देते उनको हम भी धन्यवाद देते हैं। पर इस लेख का तात्पर्य 'दो' शब्द का दुष्ट भाव दिखलाना और यथासाध्य छोड़ देने का अनुरोध करना मात्र है न कि कुछ मांगना जांचना । यदि सनिक भी इस ओर ध्यान दीजिएगा कि 'दो' क्या है तो अवश्य जान जाइएगा कि इसको मन व वन कम से त्याग देना हो ठोक है। क्योंकि यह हई ऐसा कि जिससे कहो उसी को बुरा लगे । कैमा हो गहिरा मित्र हो पर आवश्यकता से पीड़ित हो के उससे आचना कर बैंठो अर्थात् कहो कि कुछ (धन अयवा अन्य कोई पदार्थ ) दो तो उसका मन बिगड़ जायगा । यदि संकोची होगा तो दे देगा किंतु हानि सह के अथवा कुछ दिन पोछे मित्रता का संबंध तोड़ देने का विचार करके । इसी से अरब के बुद्धिमानों ने कहा है-अल कर्ज मिकराजुल मुहब्बत । जो कपटी वा लोभी वा दुकानदार होगा तो एक २ के दो २ लेने के इरादे पर देगा सही पर यह समझ लेगा कि इनके पास इतनी भी विभूति नहीं है अथवा बड़े अपव्ययो हैं । यदि ऋण की रीति पर न मांग के यों ही इस शब्द का उच्चारण कर बैठो तो तुम तो क्या हो भगवान को भी लघुता हो चुकी है--'बलि १ मांगत हो भयो बावन तन करतार'। यदि दैवयोग से प्रत्यक्षतया ऐसा न हवा तो भी अपनो आत्मा माप ही धिक्कारेगी, लजा कहेगी-'को देहोति बदेत स्वदग्धजठरस्यार्थ मनस्वी पुमान्' । यदि आप कहें, हम मांगेंगे नहीं, देंगे, अर्थात् मुख से दो दो कहेंगे नहीं किंतु कानों से सुनेंगे, तो भी पास की पूंजो गंवा बैठने का डर है। उपदेश दोजिएगा तो भी अरुचिकर हुवा तो गालियां खाइएगा, मनोहर होगा तो यशःप्राप्ति के लालच दूसरे काम के न रहिएगा। इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिल सक्ते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि 'दो' का कहना भी बुरा है, सुनना भी अच्छा नहीं। हमारी गवर्नमेंट सब बातों में परम प्रशंसनीय है पर इस बात में बदनाम है कि सदा यही कहा करती है, यह टिकट दो, यह लाइस्यन्स दो, इसका चंदा दो, इसका महसल