पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२४४ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली दो। और हम यद्यपि डर के मारे देते हैं पर दिन २ दरिद्री अवश्य होते जाते हैं अथव यदि हमारे कोई २ भाई कहते हैं कि हमें भी यह अधिकार दो, वह आज्ञा दो, तो अनेक हाकिमों की रुष्टता के पात्र बनते हैं तथा अनेक एंगलोइंडियन पत्रों को सर्कार से ताने के साथ कहते हुए सुनते हैं और भी इन ढोठ काले आदमियों को विद्या दे, बुद्धि दे, बोलने दो। कहाँ तक कहें यह 'दो' सबको अखरते हैं। चाहे जिस शब्द में 'दो' को जोड़ दो उसमें भी एक न एक बुराई ही निकलेगी। दोख ( दोष ) कैसी बुरो बात है । जिसमें सचमुच हो उसके गुणों में बट्टा लगा दे, जिस पर झूठमूठ आरोपित किया जाय उसकी शांति भंग कर दे । दोज़ख ( नर्क अथवा पेट ) कैसा बुरा स्थान है जिससे सभी मतवादी डरते हैं,कैमा वाहियात अंग है जिसकी पूर्ति के लिये सभी कर्तव्याकर्तव्य करने पड़ते हैं। 'दोत्' कैसा तुच्छ संबोधन है जिसे मनुष्य क्या कुत्ते भी नही मुनना चाहते । दोपहर कैसी तीक्ष्ण वेला है कि ग्रीष्म तो ग्रीष्म शीत ऋतु में भी मुख से कोई काम नहीं करने देती। दोहर कैसा बेकाम कपड़ा है कि दाम तो दूने लगें पर जाड़े में जाड़ा न खो सके, गरमी में सह्य न हो सके। हां, दोहा एक छंद है जिसे कवि लोग बहुधा आदर देते हैं, सो भी जब उसमें से दो की शक्ति हनन कर लेते हैं। इससे यह ध्वनि निकलती है कि जहां दो होगे वहां उनका भाव भंग ही कर डालना श्रेयस्कर होगा। इसी से ईश्वर ने हमारे शरीर में जो २ अवयव दो दो बनाये हैं उनका रूप गुण कार्य एक कर दिया है। यदि कभी इस नियम में छुटाई बड़ाई इत्यादि के कारण कुछ भी त्रुटि हो जाती है तो सारी देह दोषपूर्ण हो जाती। हाथ पांव आँख कान इत्यादि यदि सब प्रकार एक मे हों तभी मुविधा होती है । जहाँ कुछ भी भेद हुआ और दो का भाव बन रहा वहीं बुराई है। इस से सिद्ध है कि नेचर हमें प्रत्यक्ष प्रमाण से उपदेश दे रहा है कि जहां दो हों वहीं दोनों को एक करो, तभी मुव पावोगे । ऋषियों ने भी इसी बात की पुष्टि के लिए अनेक शिक्षाएं दी हैं । स्त्री का नाम अर्धागी इसीलिये रग्वा है कि स्त्री और पुरुष परस्पर दो भाव रखेंगे तो संसार से सुख का अदर्शन हो जायगा। इनको रुचि और उनकी और, उनके विचार और इनके और होने से गृहस्थी का खेल ही मट्टी हो जाता है-'वसम जो पूजै घोहरा, भूत पूजनी जोय । एक घर में दो मता कुशल कहाँ ते होय ।' इससे इन दोनों को परस्पर यही समझना चाहिये कि हमारा अंग इसके बिना आधा है । अर्थात् इसकी अनुमति बिना हमें कोई काम करने के लिये अपने तई अक्षम समझना उचित है। प्रेम सिद्धांत भी यही सिखाता है कि सीताराम, राधाकृष्ण, गौरीशंकर, माता पिता आदि पूज्य मूर्तियों को दो समझना अर्थात् यह विचारना कि यह और है वह और है, इनका महत्व उनसे कुछ न्यूनाधिक है, महापाप है। फारसी में दोस्त का शब्द भी यही द्योतन करता है कि दो का एक रहना ही सार्थकता है। नहीं तो 'दो' बहुवचन है, उसके साथ स्त = अस्त क्रिया न होनी चाहिए थी। व्याकरण के अनुसार स्तंद =अस्तंद वा हस्तंद होना चाहिए । पर नहीं, बहुवचन की क्रिया होने से द्वैतभाव प्रकाश होता इससे यही उचित ठहरा कि शरीर दो हों तो भी मन वचन कर्म एक होना चाहिए। इसोसे कल्याण है। नहीं तो जहाँ दो है वहीं