पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७

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हो ओ ओ ली है ] न देखा। खरी कहाते हो, तुम्हारे चचा साहब दयानंदो हैं, उन्हें भी मुहीं से धर्म २ वेद २ उन्नति २ चिल्लाते पाया, करतूत कुछ भी न देख पड़ी। क्या हिंद के बदले आर्य और सलाम प्रणाम के बदले नमस्ते कहना ही धर्म का मूल, वेद का तत्व और उन्नति की सीढ़ी है ? सच्ची बातें चूना सी लगती हैं ! १-तुम्हारे लगती होंगी जो जग उठे, यहाँ तो पहिले अपनी उतार लेते हैं तब दूसरे को पर हाथ डालते हैं । पर आप निहायत सच्च कहते हैं। हम को, तुम को और सभी को अपने नाम को लाज रखना अति उचित है । २-यार यह तो होता ही रहेगा, एकाध तान तो उड़ । १–हां हां, लीजिए, धी-धीता-धींता-धोता- होली कैसी होरो मचाई-अहो प्रिय भारत भाई ॥ आलस अगिन वारि सब फुक्यो विद्या बिभव बड़ाई। हाय आपने नाम रूप की निज कर धरि उड़ाई ॥ रहे मुख कारिख लाई ॥ आपस में गारी बकि बकि के कीन्हीं कौन भलाई । महामूढ़ता के मद छाके हित अनहित बिसराई ॥ लाज सब धोय बहाई ॥ सर्बस खोय परे हो पबंस तहूँ न जात ढिठाई । भावी बर्तमान दुख शिर पर ताकी शंक न राई । बुद्धि कैसी बौराई। अबहूँ सुन हुरिहार की बिनती तजी निपट हुरिहाई । सांचे सुख को जतन करो कछु नहिं रहिही पछिताई ॥ बीत जब औसर जाई ॥ २-गाते हो कि रोते हो! तुम्हें और कुछ न आया, ले अब हमारी सुनो, अरर र कबीर! जहां राजकन्यन के डोला तुरकन के घर जायं । तहां दूसरी कौन बात है जेहम। लोग लजायं ॥ ____भला इन हिजरन ते कुछ होना है ॥ १ ॥ कहैं गऊ को माता तिन को दुरगति देखें रोज । लाज शरम और धरम करम का इन में नाही खोज ॥ भला इस हिंदूपन पर लानत है ॥ १॥