पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७१

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अष्टकपारी दारिद्री जहां जायं तहं सिद्धि ] २४९ जिस २ बात में बढ़े हैं उन्हों ने अपनी बढ़ती के पहिले इन्हीं दो गुणों में से एक अथवा दोनों को ग्रहण किया था। ऐसे उदाहरण सब देशों के इतिहास में बहुतायत से मिल सकते हैं कि अष्टकपारिता ही के कारण भनेक लोगों ने नीच दशा से उत्थान किया है । जो लोग इतिहासवेत्ता नहीं हैं उन्होंने भी बहुधा देखा अथवा विश्वासपात्रों से सुना होगा कि फलाने के घर में भून चबान का ठीक न था, टूटी लुटिया और सत्तर गांठ की डोर बांध के विदेश गये थे, वहां से चार छः दस वर्ष मे इस दशा को प्राप्त हो आये । यदि पता लगाओ तो परदेश में उन्होंने कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवादि कामो के करने में किसी तरह की कसर न उठा रक्खी होगी, इसमें इतनी समुन्नति लाभ की। हम नहीं जानते कि ऐसे के सैकड़ों प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शादप्रमाण विद्यमान होने पर भी हमारे देश माई इधर क्यों ध्यान नहीं देते ? घर मे थोड़ा सा खाने भर का सुनीता हुआ सो परदेश जाके उद्योग करने मे मानहानि है। थोड़ी सी विद्या सीख ली तो दस पत्र की नौकरी करने में बबुआई बिगड़ती है । चार पुरवा की जमीदारी हुई तो हजार पांच सौ रुपये से कोई वस्तु बेचना खरीदना नौधरी है । थोड़ी सी प्रतिष्ठा मिल गई तो मोटा कपड़ा पहिनने से कटती है। अपने हाथ से अंगरखे लगा लेने से जात जाती है। विसो सामर्थ्यवान से सहायता लेने में साख घटती है । यह क्यों ? कमबख्ती ! अभाग्य ! बिगड़ने के लक्षण! नहीं तो बड़े २ सम्राट भी जब दूसरे देश पर अधिकार किया चाहते हैं तो जा के चढ़ाई ही नहीं कर देते अथवा राज परिकर ही से साम दाम नहीं करते । एक दो बार हारने पर जन्म भर लाज के मारे मुंह न दिखाने का शपथ नहीं खा बैठते । पर हमारे शेखीदार लज्जावान भाई थोड़ी सी बसु ग पर फूल के-बधेि मरे कि टंका विकाय' का उदाहरण बन बैठते हैं । इसी के मारे अनेकों घर तबाह हो गये पर किसी को कुछ परवा ही नहीं है । वही जब शिर पर आ पड़ती है तब सब कुछ करना पड़ता है, पर पहिले से 'सर्व संग्रह कर्तव्य कः काले फलदायकः' की तमीज ही नहीं। यद्यपि संकड़ों वर्ष से दरिद्र देवता डेरा डाले हुए हैं, लाख को खाक कर चुके हैं और खाक को भी उड़ाने पर कटिबद्ध है, इससे जान पड़ता है कि यदि यही दशा रही तो सौ दो सौ वर्ष में सर्वस्वाहा की ठहर जायगी, तब स्वयं सबकी आंखें खुलेंगी और हिताहित का मार्ग सूझेगा । क्योकि दरिद्र की पराकाष्ठा में समझ बढ़ती है-Necessity is the mother of in vention प्रसिद्ध है । 'सुखस्यानंतरं दुःखं दुःखस्यानंतरं सुन्वम्' हमारे महर्षियों का अनुभूत वाक्य है । पर यदि अभी से दूरदर्शिता से काम ले के अष्टकपारित्व और दरिद्रित्व का महत्व समझ रक्खा जाय तो आश्चर्य नहीं कि ईश्वर की दया से वह दिन ही न देखना पड़े। इसी आशा पर लगले लोग कह गये हैं और हम भी स्मरण दिलाये देते हैं कि 'अप्रशोची सदा सुखी' रहता है । अतः 'अष्टकपारी दारिद्रि जहां जायं तहां सिद्धि' के मर्म को समझिये, ध्यान दीजिये और आचरण कीजिये तो कुछ दिन में देखियेगा कि सारे दुःख दरिद्र आप से भाप दूर हो जायंगे । खं. ६, सं० १.(१५ मई ह० सं० ६)