पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७३

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रथयात्रा] २५१ का भेदबुद्धि से आपस में झगड़ना ऐसा है जैसा दो सहोदर लड़ें और वह उसके बाप को गाली दे, वह उसके पिता को कुवाच्य कहे । २. अप्रतयं परमेश्वर परम सुंदर भी है, महा भयंकर भी है। मनोमुकुर में अपनी मनोवृत्ति का जैसा मुंह बना के देखोगे वैसा ही देख पड़ेगा। जैसे को हरि तैसा है । फंक २ पांव धरने वाले आचारी भी उसी के हैं, उनका भरण पोषण और उद्धार उसी के हाथ है तथा स्वतंत्राचारी पंचमकारी भी उसो के हैं । ३. राधा और कृष्ण एक हैं। अभी मान के समय उनके चरणों पर वे मुकुट रखते थे, अभी काली स्वरूप में उनको चरण बन्दना वे कर रही हैं। इससे इनके उपासकों को सीखना चाहिये कि जो प्रतिष्ठा, जो अधिकार, जो गौरव, पुरुषों का है वही स्त्रियों का भी है। ४. अयन घोष खंग खीचे हुए, शिरच्छेदन करने आया था पर आते ही पानी हो गया। क्यों ? कहीं सच्चे, निर्दोष, निर्मम, प्रेमाराधकों पर तलवार चल सक्ती है ? हां इनना बहत है कि.. अपना पौरुष दिखला लें पर वास्तव मे कर कुछ नहीं सकते। या यों कहो, 'ज्ञानी मूढ़ न कोय । जव जेहि रघुपति करहिं जस, सो तस तेहि छिन होय ।' तलवार दिखाने वालों से पल भर में दंडवत कराना और महा-हीन दीनो को खंगधारण के योग्य बना देना सर्वशक्तिमान के बांये हाथ का खेल है, क्योंकि वह 'कर्तु। मकतु मन्यथा कनु समर्थ' है। यदि इसे कथा न समझ के कवियों की कल्पना मात्र मानिये तो भी ५. प्रेमदेव श्रीकृष्ण हैं और प्रेमिक की मनोवृत्ति राधा जो हैं, जो निर्विघ्न स्थ न पाते ही अपने प्यारे के जीवित संबध में निमग्न हो जाती हैं और संसार अयन घोष है जो नहीं चाहता कि मेरा सानिध्य छोड़ के कोई दूसरी ओर जाय । इससे ऐसे लोगों के बिनाशार्थ नाना भांति के कष्ट एवं अभाव रूपी शस्त्र ले के दौड़ता है। पर क्या प्रेमिक इससे भयातुर होकर अपने प्रेमाराधन से विमुख हो जाते हैं ? नहीं, वे देखते हैं कि संसार के खंग से हमारे प्रेमाधार की तलवार अधिक तीक्ष्ण है और संसार स्वयं यह देख के लजित एवं विस्मित हो जाता है कि यह जिसका आश्रित है उसी का आश्रित मैं भी हूँ, फिर भला इसका मैं क्या कर सकेगा। ६. धर्म श्रीकृष्ण है और उत्साही पुरुष को मनसा राधा है । जब उत्साही पुरुष धर्म में संलग्न होता है तब सांसारिक प्रलोभन शस्त्र धारण करके उसे च्युत करने के विचार से भय और लालच दिखलाता हुआ आता है। पर धार्मिक पुरुष जब विचार के देखता है तो निश्चय कर लेता है कि मेरे अनुष्ठान में जितने आनंद हैं उनके आगे इतर आमोद प्रमोद सब तुच्छ हैं एवं दूसरे मार्ग का अवलंबन किये बिना जो भय दिखाई देते हैं वे वास्तव में कुछ नहीं हैं, केवल हमारी परीक्षा के लिये धुवां के धौरहर मात्र है। इनसे डर जाना वा ललचा उठना मागे के लिये वंचित रहना है । बस, यह