पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७५

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पंच परमेश्वर ] २५३ (यदि परमेश्वर को मानते हों तो) पंच अर्थात् अनेक जन समुदाय को परमेश्वर का प्रतिनिधि समझें। क्योंकि परमेश्वर निराकार निर्विकार होने के कारण न किसी को बाह्य चक्षु के द्वाग दिखाई देता है न कभी किसी ने उसे कोई काम करते देखा है पर यह अनेक बुद्धिमानों का सिांत है कि जिस बात को पंच कहते वा करते हैं वह अनेकांश में यथार्थ ही होती है । इसी से पांच पंच मिल कीजै काज हार जीते होय न लान', 'बजा कहे जिसे आलम उसे व ना समझो, ज़बाने खल्क को नकारए खुदा समझो'-इत्यादि वचन पढ़े लिखों के, और-पांच पंच के भाषा अमिट होती है', 'पंचन का बैर के के को तिष्ठा है'- इत्यादि वाक्य साधारण लोगों के मुंह मे बात२ पर निकलते रहते हैं । विचार के देखिये तो इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि -- 'जब जेहि रघुपति करहिं जस, सो तस तेहि छिन होय' की भांति पंच भी जिसको जैसा ठहरा देते हैं वह वैसा ही बन जाता है। आप चाहे जैसे बलवान, धनवान, विद्वान हो पर यदि पंच की मरजी के खिलाफ चलिएगा तो आने मन मे चाहे जमे बने बैठे रहिये, पर संसार से आपका वा आर से संसार का कोई काम निकलना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो जायगा। हाँ, सब झगड़े छोड़ के विरक्त हो जाइए तो और बात है। पर उस दशा में भी पंचभूतमय देह एवं पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय का झंझट लगा ही रहेगा। इसी से कहते हैं कि पंच का पीछा पकड़े बिना किसी का निर्वाह नहीं है। क्योकि पंच जो कुछ करते हैं उसमें परमेश्वर का संसर्ग अवश्य रहता है और परमेश्वर जो कुछ करता है वह पंच ही के द्वारा सिद्ध होता है । बरंच यह कहना भी अनुचित नहीं है कि पंच न होते तो परमेश्वर का कोई नाम भी न जानता । पृथ्वी पर के नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु, पक्षी और आकाश के सूर्य, चंद्र, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रादि से परमेश्वर की महिमा विदित होती सही, पर किसको विदित होती? अकेले परमेश्वर ही अपनी महिमा लिए बैठे रहते ! सच पूछो तो परमेश्वर को भी पंच से बड़ा सहारा मिलता है । जब चाहा कि अमुक देश को पृथ्वी भर का मुकुट बन.वें, बस आज एक, कल दो, परसों सौ के जी में सद्गुणों का प्रचार करके पंच लोगों को श्रमी, साहसो, नीतिमात,प्रीतिमान बना दिया। कंचन बरसने लगा। जहां जी में आया कि अमुक जाति अब अपने बल, बुद्धि, वैभव के घमंड के मारे बहुत उन्नतग्रीव हो गई है, इसका सिर फोड़ना चाहिए, वहीं दो चार लोगों के द्वारा पंच के हृदय में फूट फैला दी। बस, बात की बात में सब करम फूट गए । चाहे जहाँ का इतिहास देखिए,यही अवगत होगा कि वहां के अधिकांश लोगों की चित्तवृत्ति का परिणाम ही उन्नत्यावनति का मूल कारण होता है । जब जहां के अनेक लोग जिस ढर्रे पर झुके होते हैं तब थोड़े से लोगों का उसके विरुद्ध पदार्पण करना ( चाहे अति पलाघनीय उद्देश्य से भी हो पर ) अपने जीवन को कंटकमय करना है । जो लोग संसार का सामना करके दूसरों के उद्धारार्थ अपना सर्वस्व नाश करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं वे मरने के पीछे यश अवश्य पाते हैं, पर कब? जब उस काल के पंच उन्हें अपनाते हैं तभी!पर ऐसे लोग जीते जी आराम से छिन भर नहीं