पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२७६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२५४ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली बैठने पाते क्योंकि पंच की इच्छा के विरुद्ध चलना परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध चलना है, और परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध चलना पाप है, जिसका दंड भोग किए बिना किसो का बचाव नहीं। इसमें महात्मापन काम नहीं आता। पर ऐसे पुरुषरत्न कभी कहीं सैकडो सहस्रों वर्ष पीछे लाखों करोड़ों में से एक आध दिखाई देते हैं । सो भी किसी ऐसे नए काम की नींव डालने को जिसका बहुत दिन आगे पीछे लोगों को शान गुमान भी नहीं होता। अतः ऐसों को संसार में गिनना ही व्यर्थ है। वे अपने बकंठ, कैलाश, गोलोक, होविन, बहिश्त कही से आ जाते होगे। हमें उनसे क्या । हम संसारियों के लिए तो यही सर्वोपरि सुख साधन का उपाय है कि हमारे पंच यदि सचमुच विनाश की ओर जा रहे हों तो भी उन्ही का अनुगमन करें तो देखेंगे कि दुख में भी एक अपूर्व सुख मिलता है, जैसा कि अगले लोग कह गए हैं कि-'पंची शामिल मर गया जसे गया बरात', 'मर्गे अम्बोह जशनेदारद'। जिसके जाति कुटुंब, हेती, व्यवहारी, इष्ट मित्र, अड़ोसो पड़ोसी में से एक भी मर जाता है उसके मुंह से यह कभी नहीं निकलता कि परमेश्वर ने दया की। क्योंकि परमेश्वर ने पंचों में से एक अंश खीच लिया तो दया कैसा बरंच यह कहना चाहिए कि हमारे जीवन की पूंजी मे से एक भाग छीन लिया। पर अनुपान करो कि यदि किसी पुरष के इष्ट मित्रों में से कोई न रहे तो उसके जीवन की क्या दशा होगी । क्या उसके लिए जीने से मरना अधिक प्रिय न होगा! फिर इसमें क्या सन्देह है कि पंच और परमेश्वर कहने को दो हैं पर शक्ति एक ही रखते हैं। जिस पर यह प्रसन्न होंगे वही उसकी प्रसन्नता का प्रत्यक्ष फल लाभ कर सकता है। जो इनकी दृष्टि में तिरस्कृत है वह उसकी दृष्टि में भी दया गत्र नहीं है। अपने ही लो वुह कैसा ही अच्छा क्यों न हो पर इसमें मीन मेख नहीं है कि संसार में उसका होना न होना बराबर होगा। मरने पर भी अकेला बैकुंठ में क्या सुख देखेगा। इसी से कहा है-'जियत हंसी जो जगत में, मरे मुक्ति केहि काज' । क्या कोई सकल सद्गुणालंकृत व्यक्ति समस्त सुग्व सामग्री संयुक्त सुवर्ण के मंदिर में भी एकाकी रह के सुख से कुछ काल रह सकता है ? ऐसी २ बातों को देख सुन, सोच समझ के भी जो किसी डर या लालच या दबाव में फंस के पंच के विरुद्ध ही बैठते हैं अथवा द्वेषियों का पक्ष समर्थन करने लगते हैं वे, हम नहीं जानते, परमेश्वर ( नेचर ), दीन, ईमान, धर्म, कर्म, विद्या, बुद्धि, सहृदयता और मनुष्यस्व को क्या मुंह दिखाते होगे। हमने माना कि थोड़े से हठी दुराग्रही लोगों के द्वारा उन्हें मन का धन, कोरा पद, झूठी प्रशंसा मिलनी संभव है पर इसके साथ अपनी अंतरात्मा ( कांशंस ) के गले पर छूरी चलाने का पाप तथा पंचों का श्राप भी ऐसा लग जाता है कि जीवन को नर्कमय कर देता है और एक न एक दिन अवश्य भंडा फूट के सारी शेखी मिटा देता है। यदि ईश्वर की किसी हिकमत से जीते जी ऐसा न भी हो तो मरने के पीछे आत्मा की दुर्गति, दुर्नाम, अपकीति एवं संतान के लिए लजा तो कहीं गई ही नहीं। क्योंकि पंच का बैरी परमेश्वर का बरी है, और परमेश्वर के बैरी के लिए कहीं शरण नहीं है-'राखि को सके राम कर द्रोही' पाठक ! तुम्हें परमेश्वर की दया और बड़ों बूढ़ों के उद्योग से विद्या का अभाव नहीं है।