पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली १-अरे यार, इन कोरी बातों में क्या है। देखा बहुत खेल चुके ! अब खेलते खेलते लस्त पस्त हो चुके ! तुम पर सैकड़ों घड़े पानी पड़ चुका, मुंह में स्याही लगी है, अब तो स्वच्छता धारण करो, अब तो शुद्ध हो जाबो ! आओ हम तुम मिलें, दूसरों से भी मिलें और अपने अपने काम से लगें। औरों से भी कहो, छोड़ो इन ढंगों को, इसी में सब का मङ्गल है। धर्म ३ प्रेम ३ सब शांतिः ३ एक हुरिहार-कानपुर खं. १, सं० १ ( १५ मार्च, सन् १८८३ ई.) बेगार जब हम अपने कर्तव्य पर दृष्टि करते हैं तो एक पहाड़ सा दिखाई पड़ना है, जिसका उल्लंघन करना अपनी शक्ति से दूर जान पड़ता है। सहस्त्रों विपय विचारणीय हैं, किस २ पर लिखें और यदि लिग्बै भी तो यह आशा बहुत कम है कि कोई हमारी सुनेगा। परंतु करें क्या ? काम तो यह उठाया है, यदि अपने ग्राहकों को यह समाचार दें कि अब गरमी बहुत पड़ने लगी, या फलाने लाला साहब की बारात बहुत धुम से उठी, या हमारे जिले के साहब मैजिस्ट्रेट, तहसीलदार साहब और कोतवाल साहब इत्यादि धर्म और न्याय के रूप ही हैं, तो हमारा पत्र तो भर जायगा पर किसो जीव का कुछ लाभ न होगा । और यदि सच २ वह असह्य दुःख जो हम प्रजागण को हैं, वह लिखे तो उससे लाभ होना तो बहुत दूर दिखाई देता है, पर जिनके हाथों वह असह दुःख हमको प्राप्त होते हैं वह हम पर क्रुद्ध होंगे। यही डर लगता है कि कहीं 'नमाज के बदले रोजा न गले पड़े । परंतु हम भिखमंगे नहीं कि केवल ग्राहकों की खुशामद का खयाल रक्खें, हम भाट नहीं कि बड़े आदमियों और राजपुरुषों को निरी झूठी स्तुति गाया करें । चो हो सो हो, हम ब्राह्मण हैं, इसमें हमारा धर्म नष्ट होता है और हम पतित हुए जाते हैं जो अत्यंन दीन और असमर्थ देश भाइयों पर अत्याचार होते सैकहा मनुष्यों से मुनें और फिर उसे सर्वसाधारण और सकार पर विदित न करें । यही तो हमारा कर्तव्य है। गत अंक में हमने 'बेगारी बिलाप' लिखा था। उसका यह फल देखने में आया कि तारीख २७ एप्रिल को लाला दुर्गाप्रसाद बजाज का चुन्नी नामक कहार किसी कार्य को बाजार जाता था, राह में उसको दो तीन सिपाही, जो आदमियों के भूखे थे, मिल गए और पकड़ लिया। उन्होंने इस निरपराधी दीन पराये नौकर को वेगार की अबाध्य अथारिटो पर पकड़ा था, उन्हें क्या डर था ? उस बिचारे बंधुए ने बहुत हाथ पांव जोड़े