पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२५८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली ऐसे अवसरों पर बहुधा यही सुनने में आता है "अरे भाई उनकी बातें उनके साथ गई, अब तो जैसे जैसे दिन काटते हैं।" सच है, जहां अपनी २ डफली अपना २ राग है वहां अपनी ही भलमंसी रखना लोहे के चने हैं, पुरुखों की गल का निर्वाह कौन कर सकता है। जिस समुदाय में आपस के चार जने मिल जुल कर बनी बिगड़ी में साथ देना शूद्रत्व समझते हैं उस में किसी को अपने तथा पराए भले में हाथ डालना अनुत्साह के अतिरिक्त और किस फल की आशा देगा तथा मनमानी चाल चलने में कौन सा भय दिखलावैगा। यही नहीं बरच बहुधा यह भी देखने में आता है कि कोई कुछ अच्छा काम कर उठावै तो उस को नीचा दिखाने का यत्न किया जाता है, उस पर दांत बाए जाते हैं, बीसियों खुड़पेंचे लगाई जाती हैं, जिसमें कार्यसिदि के कारण वह हम से बढ़ न जाय, तथाच आपदग्रस्त की हंसी उड़ाई जाती है जिसमें अपने बचाव का प्रयत्न करने में साहसी न हो सके । ऐसी दशा में यदि समाज का सब प्रकार से अधः-पतन न हो तो क्या ? बहुतेरे बहुधा कहा करते हैं कि इस जमाने में भले-मानसों का गुजारा नहीं है, पर यह नहीं विचारते कि भलेमानस अपने गुजारे का उपाय क्या करते हैं, उच्च कुल में जन्म पाने के अतिरिक्त भलमंसी ही कौन सी रखते हैं ? रक्खें भी तो उस के चिरस्यायित्व और प्रचार का कौन सा मार्ग अवलम्बन करते हैं ? फिर क्या है, भले- मानस हों तो अपने को, कूमानस हों तो अपने को । सुख पावै तो अपने आप पावै, दुख भोगें तो अपने आप भोगें। इसी से आज मेरी, कल तुम्हारी, परसों इन को, नरसों उन को और यों हो धीरे-धीरे सब की दुर्दशा होती चली जाती है और शीघ्र उपाय न किया गया तो होती ही रहेगी। उपाय दुस्साध्य नहीं है और बहुतेरे जानते भी हैं पर उसे क रीति पर न बर्तने के कारण बड़े २ उद्देश्यों से बड़े २ नाम की सभाएं होती हैं और थोड़े दिन धूम मचा के या तो समाप्त ही हो जाती हैं या नाम मात्र के लिए केवल दो उत्साहियों के उद्योग से ज्यों त्यों अपनी लीक पीटा करती हैं। नहीं तो ऐसा कोई नगर, ग्राम, टोला, महल्ला न होगा जिस में दो चार ( कम से कम एक ) ऐसे "पुरुष न हों जो अपनी जाति की रीति नीति में कुशल, पास पड़ोस वालों की दशा में अभिज्ञ, देश काल की गति के अनुकूल अनुमति देने में चतुर; बहुत समय बीतने अथवा वृद्ध लोगों की बात सुनते रहने के कारण अनुभवशील, दस पांच जनों के श्रद्धापात्र और किसी न किसी योग्यता के हेतु दस बीस लोगों पर दबाव रखने वाले न हों। देश जाति के सच्चे शुभचिंतक लोग यदि ऐसों के पास अवकाश के समय जा बैठा करें और समय २ पर आत्मीयत्व का बर्ताव रख के हेल मेल बढ़ाते रहें तथा अपने कुटुम्ब गोत्र मित्र हेतु व्यवहारी गांव टोला से संबंध रखने वाले विषयों में उन से सम्मति लेते देते रहा करें, 'घर बाहर के झगड़े उन्ही के द्वारा निपटा के और व्यापार व्यवहार की बाठों में उनका कहा करके सामाजिक राजनैतिक धार्मिक इत्यादि कामों में उन्हें शिरधरा के अपना तया उनका उत्साह गौरव एवं परस्पर का हित बढ़ाते रहा करें तो थोड़े ही काल में देखेंगे कि कैसा सुभीता प्राप्त होता है, दूसरों की दृष्टि में कैसा संमान बढ़ता है और मागे के लिए कैसा सुख का विस्तृत मार्ग खुलता है। जिन बातों के लिए आज हमें