पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६२
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२६२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली बंधु बांधव, सजाती स्वदेशी आदि से उसका बर्ताव रक्खे रहिए, पर जगत भर के साथ उसका आचरण व्यर्थ ही नहीं वरंच हानिकारक, पागलपन है। अतः उसे पुरानो सत्यनारायण वाली पोथी में बांध रखिए वा पासलकर के सत्यलोक में भेज दीजिए जिसमें फिर कभी सत्ययुग आवै तो ब्रह्मा जी को उसके लिए दौड़ धूप न करनी पड़े और हमारे मिथ्या मंत्र को गले का यंत्र बना के अपना तथा अपने भाइयों का हित साधन करते रहिए । इसी में सब कुछ है और सब बायचंचोपना है। खं० ७, सं० १-२ ( १५ अगस्त-सितंबर ह० सं० . हमारी आवश्यकता (१) जी बहलाने के लेख हमारे पाठकों ने बहुत से पढ़ लिए । यद्यपि उनमें भी बहुत सी समयोपयोगी शिक्षा रहती है पर वारजाल में फंसी हुई, ढूंढ निकालने योग्य । अतः अब हमारा विचार है कि कभी २ ऐसी बातें भी लिखा करें जो इस काल के लिये प्रयोजनीय हों, तथा हास्यपूर्ण न हो के सोधी २ भाषा में हों, जिसमें देखते और विचारते समय किसी प्रकार का अवरोध न रहे अथच हमारे पाठकों का काम है कि उन्हें निरस समझ के छोड़ न दिया करे तथा केवल पढ़ ही न डाला करें बरंच उनके लिए तन से, धन से, कुछ न हो सके तो बचन ही से यथावकाश कुछ करते भी रहा करें। क्योंकि यह समय बातों के जमाखर्च का नहीं है, कुछ करते रहने का है । जब हमारा धन हेर फेर के हमारे ही देश में रहता था, हमारो शक्ति कुछ न होने पर भी इत्नी बनी थी कि अपने सताने वालों को दबा न सकें तो भी अपने बचाव के लिये हाथ पांव हिला के जी समझा लें, हमारे लिए कृषी, वाणिज्य, शिल्प, सेवा के द्वार खुले हुए थे । इससे निर्वाह की अड़चन न थी, तब हमें बातें बनामा मोहता था, चाहे ब्रह्मज्ञान छोटा करते, चाहे गद्य पद्यमय लेखो से कमल की कारीगरी दिखाया करते, चाहे अपने साथियों के धर्म कर्म चाल व्यवहार को प्रशंसा और दूसरों की तुटता के गीत गाया करते, पर अब जब कि हमारे हाथ कुछ भी नहीं रहा है, उसके भी चिरस्थायित्व का विश्वास नहीं, तो फिर सर्वथा यही उचित है कि सो काम छोड़ के, ( यदि अपना भला चाहते हों तो ) ऐसे उद्योगों में लगे रहें जो हमारे लिए आवश्यक हैं। यदि हम विरक्त हों तो भी हमें आज अपनी आत्मा के कल्याणार्थ बन में जा बैठना श्रेयस्कर न होगा, क्योंकि हमारे चतुर्थाश माई भूखों मर रहे हैं और तीन चौथाई ऐसे हैं कि तीन खाते हैं तेरह की भूख बनी रहती है । ऐसी दशा में केवल अपने परलोक की चिंता करना निर्दयता और स्वार्थपरता है। फिर उनके लिए तो कहना ही क्या है जो गृहस्थ कहलाते हैं और परमेश्वर की दया से दोनों पहर अच्छा खाते ,अच्छा पहिनते, पोड़ी बहुत समझ और सामर्थ्य भी रखते हैं। वे यदि अपने देश-भाइयों की आवश्यकता को न देखें, और उसके अभाव की पूर्ति में बलवान न रहें तो अंधेर है, अन्याय है,