पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८५

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हमारी आवश्यकता ] २६३ अमर्थ है। मनुष्य का जीवन हजार पांच सौ वर्ष का नहीं है, बहुत जीता है वह सौ वर्ष जीता है । तिसमें भी अनुमान आधी बायु, रात्रि की, सोने में बीत जाती है । रही आधी, उसमें भी बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था, खेल कूद, और पड़े २ खटिया तोड़ने के अतिरिक्त किसी काम की नहीं होती। यों लेखा जोडिए तो सौ वर्ष में कुछ करने धरने के योग्य बीस ही पच्चीस वर्ष निकलेंगे। उनमें भी गृहस्थी के सौ वर्ष निकलेंगे, उनमें भी गृहस्थी के सौ झंझट एवं माना रोग वियोगादि लगे रहते हैं। यों विचार के देखिये तो दस पंद्रह हद बीस ही वर्ष हैं जिनमें किए हुए कामों के द्वारा अपना पराया हिताहित अथच मरणांतर चिरस्थायी यश अपयश प्राप्त कर सकते हैं। यदि इतना स्वल्प काल भी केवल अपना हो पापी पेट पालने, अपना ही स्वार्थ साधने तथा आलस्य और अनुद्योग ही में लगाया जाय तो हम नहीं जानते मनुष्य जनम पाने का दावा, 'अशरफुल मखलूकात' बनने का घमंड, आप किस बिरते पर कर सकते हैं। विशेषतः इस समय में जब कि हमारे पीछे होने वाली पौधों का भला बुरा हमारे ही हाथ आ रहा है और अनेक आवश्यक काम ऐसे आ लगे हैं जिनके किए बिना न हमारा निर्वाह देख पड़ता है न हमारी संतान के प्ले सुखमय जीवन की राह सूझ पड़ती है। और इसी से अनेक सहृदय एक न एक कार्य में जुटे रहते हैं तथा वर्तमान राज्य मे उन कर्मों के लिये बहुत कुछ सुभीता भी है । यदि ऐसे में चूक गए तो आपको तो क्या कहें, आपके बनाने वाले परमेश्वर ने आपको बुद्धि दान करके क्या फल पाया, यह हम पूछा चाहते हैं। इन बातों के उत्तर में कही यह न कह दीजिएगा कि हमारे अकेले के लिये क्या हो सकता है ? क्योंकि मनुष्य कभी अकेला नहीं रह सकता, सभी प्रकार के लोगों का थोड़े बहुत लोग साथ देने को, सदा सब ठौर मिल रहते हैं। यदि मान ही लें कि हमाग साथी कोई नहीं है तो भी जो हम आस्तिक हैं तो परमात्मा अवश्य साथ है जो सर्वशक्तिमान कहलाता है और उसे न भी मानिए तो आँखें खोल के देखने से जान पड़ेगा कि संसार में सारे काम मनुष्य ही नहीं करते हैं। फिर क्या हम मनुष्य नहीं हैं जो अपने कर्तव्य को न देखें, अपनी आवश्यकताओं को न जाने और उनकी पूर्ति के लिये यथासाध्य उपाय न करें? हाँ, सामर्थ्य की स्वल्पता से अग्रगामी न बन सकें, पूर्ण पौरुष न दिखा सकें, यह दसरी बात है। पर इसके साथ यह भी समझे रहना चाहिए कि सभी सर्वगण संपन्न नहीं होते और यदि हो जाय तो किसी को किसी की सहायता मिलना दुर्घट हो जाय । या यों कहिए, फिर किसी को कोई अभाव ही क्यों रहें। इससे जितना, जो कुछ, हो सके उतना करते रहना ही परम कर्तव्य है । आगा पीछा करना या बहाने गढ़ना 'दुनिया में जैसे आए वैसे चले गए' का उदाहरण बनना है। अस्मात् समझ हो तो आँखें खोल के देखिए कि हमारे लिए किन २ बातों की भावश्यकता है और उनके पूर्ण करने के क्या २ उपाय है, तभी कुछ हो सकेगा। स्वयं समझने की समझ न हो तो हमसे वा किसी और से समझ लीजिए और दूसरों को समझाने में लगे रहिए, बस इसी में सब कुछ है। खंड ७, सं० १-२ (१५ अगस्त-सितंबर ह• सं०६)