पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२९०

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हमारी आवश्यकता (२) बुद्धिमानों का सिद्धांत है कि प्रत्येक जाति अपनी भाषा भेष भोजन और धर्म से पहिचानी जाती है । इस न्याय के अनुसार मनुष्य मात्र को इन चार पदार्थों के संरक्षण की आवश्यकता है। इनके लिए दूसरों का मुंह ताकना, दूसरों से आशा रखना अथवा भय संकोच करना, अपने जातीयत्व को सत्यानाश करना है । और ऐसा कोई भी देश धरती की पीठ पर नहीं हैं जहां के प्रत्येक समुदाय वाले इन चारों बातों को अपने ही रंग ढंग में साथ न रखते हों । यूरोप एमेरिकादि का तो कहना ही क्या है, वहां तो सब प्रकार परमेश्वर को दया है। अपने यहां देखिए, बंगाली, मद्रासी, गुजराती, मारवाड़ी इत्यादि सभी अपनी २ भाषा, भेष, भोजनादि का पूरा ममत्व रखते है। चाहे जहाँ जायं, चाहे जिस दशा में हों, अपनापन नहीं छोड़ते। पर खेद है हमारे पश्चिमोत्तर देशवासी हिन्द दास पर जिनके यहां किसी बात का ठीक ही नहीं है। जिस विषय में देवो उसी में ऐसे मोम की नाक हो रहे हैं कि फिरते देर ही नहीं। इन्ही लक्षणों के कारण इनके लिए न घर मे सुभीता है, न बाहर सम्मान है, न किसी को इन पर मन- मानो अंधाधुंध करते कुछ भी संकोच होता है, न बड़े २ शुभचिंतकों के किए कुछ होता है । क्योंकि जिस जाति में आत्मत्व ही नहीं है उसे सृष्टि अथवा सृष्टिकर्ता से आशा ही क्या । विचार के देखिए तो मनुष्य तो मनुष्य ही है, पशु पक्षी तक अपने जातीयत्व के अंगों को नहीं छोड़ते । तोता मैना को आप लाख अपनी बोली सिखलाइए पर आपस में वा अपने सुत्र दुःखादि को प्रगट करने में अपनी ही बोली बोलेंगे। कौए पर करोड़ रंग चढ़ाइए पर कुछ ही काल में वह अपनी कालिमा को फिर धारण कर लेगा। सिंह के संमुम्ब सौ प्रकार के शाक अथवा हरिण के सामने सहस्र मांति के मांस रख दीजिए, चाहे जै दिन का भूग्वा हो उसकी ओर आंग उठा के न देखेगा। किन्तु हम निजत्व से इतने वंचित हैं कि जिन्हें अपनी किसी बात का कुछ ध्यान ही नहीं, चाहे कोई कुछ कर उठावे, कुछ उत्साह ही नहीं। इसी हेतु से जिन दिनों प्रत्येक जाति अपनी उन्नति के लिए धाबमान हो रही है उस अवसर में भी हमारा धन, बल, गौरव क्षण २ क्षीण हो रहा है और परमेश्वर न करे सौ वर्ष भो यही दशा रही तो कोई आश्चर्य नहीं है कि हिन्दू हिन्दुस्तानी वा हिन्दी इत्यादि शब्द मात्र रह जायंगे। इससे आज ही से चेतना और समझ रखना चाहिए कि अपना भला बुरा अपने हाप है। दूसरों को क्या पड़ी है कि हमारे लाभ के लिए अपने समय, सुविधा अथवा स्वच्छन्द व्यवहारों की हानि करेंगे। यद्यपि हमारी वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति प्रत्यक्ष वा प्रच्छन्न रूप से किसी प्रकार वास्तविक कष्ट व हानि न करेगो वरंच कुछ ही दिनों में सुख और सहायता मिलना मारंभ हो चलेगा और परिणाम में तो देश और जाति की सभी प्रकार की मुविधा का