पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२९४

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मर्तिपूजकों का महौषध यों चाहे जो कहा करे कि मूर्तिपूजा वेदविरुद्ध होने के कारण हानिकारिणी है पर जिन महात्माओं का सिद्धांत है कि 'धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्' उनके बचनानुसार हम कह सकते हैं कि जिन्हें इस काम में पूर्ण श्रद्धा न हो वे भी केवल नित्य नियमानुसार दर्शन और चरणामृत पाने मात्र से शारीरिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्याह सूर्योदय के पहिले गंगा स्नान निभ सके तो तो कहना ही क्या है, प्रातः काल की स्वच्छ वायु का सेवन, सो भी पांव २ चल के, वैद्य डाक्टर हकीम सभी के मत में महागुणदायक है। ऊपर से उस समय जिस देवमंदिर में जाइए, बहुधा फूलों तथा धूप कर्पूर से महकता हुका पाइएगा। यह मस्तिष्क के लिये अमृत ही है। परमेश्वर ने चाहा तो हैजा और इम्पलुयंजा तो कभी पास न आवैगे। इदि इतना भी न हो सके तो चरणामृत ही का नेम कर लीजिए। उसकी भी यह महिमा झूठ नहीं है कि 'अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधि विनाशनं'। जो व्याधि हरेगा वह अकाल मन्यु को अवश्य ही निकट न आने देगा । सो सभी पदार्थ उसमे विद्यमान हैं । गंगाजल को सभी जानते हैं, सारे संसार की नदियों से अधिक शुद्ध है । बरसों रख छोड़ो न स्वाद बदलेगा, न दुर्गन्धि आवेगी, न कीड़े पड़ेंगे। ऐसा उत्तम जल, उसमें भी सर्वज्वरधन तुलसी के दल कार से। महातापहारक चंदन ( ज्वर अजीर्ण और दाह मे वैद्यों के यहाँ तरू.सी तथा हकीमों के यहां संदले सुफैद आगे चलते हैं ) सो भी जाड़े के दिनों सुगंधिप्रसारक और पुष्टिकारक केशर से मिला हुआ, जिसे नित्य निहार मुंह सेवन करने को मिलेगा उसे भला शीतोष्णजनित व्याधि क्यों सताने लगी, विशेषतः भारत ऐसे उष्णता प्रधान देश में ? उपर्युक्त तीनों पदार्थों का गुण चाहे जिस वैद्यविद्या विशारद से पूछिए, उत्तम ही बतलावेंगे । फिर हम क्यों न मान लें कि भगवान का चरणोदक इस देश वालों के लिये बिना-पैसा कौड़ी की सर्वव्याधि विनाशिनी महोषध है। हां, यदि नये नेमियों को उसके सेवन से श्लेष्मा हो जाय तो केवल दो ही तीन का काया कष्ट है, जान जोग्वों नहीं है, जब अभ्यास पड़ जायगा तब प्रत्यक्ष गुण देख पड़ेगा। यदि हमारे कहने से जी न भरे तो चरणामृत के ऊपर से दो चार बालभोग के बताशे अथवा भिगोई हुई चने की दाल ( कच्ची ) थोड़ी सी पा जाइये तो वह डर भी जाता रहेगा। और सुनिए, श्री शालिग्राम अथवा नर्मदेश्वर जी को स्नान करा के आंखों पर स्पर्श कीजिए तो वह टंढक आती है कि क्या हो कहना है। आश्चर्य नहीं जो ऋषियों ने प्राणायामजानित ऊष्मा की निवृति ही के लिये यह रीति निकाली हो। कई मित्रों का अनुभव है कि नेत्र विकार के लिये यह अत्युत्तम उपाय है। यदि ऐसी ही ऐसी बातें वेद विरुद्ध हैं तो वेद भगवान को दूर ही से प्रणाम है जो श्रद्धालुओं के तन मन और आत्मा के लिये सुखद और केवल नियमपालकों के लिये शरीर स्वस्थ रखने वाले मूर्तिपूजा का निषेध करते हों। खं. ७, सं० ४ (१५ नवंबर ह. सं० ६)