पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२९९

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सच्चा सदनुष्ठान अब की बार दिल्ली में भारत धर्म महामंडल का अधिवेशन बड़ी भारी धूमधाम से हुआ जिसका वृत्तान्त कई समाचारपत्रों के द्वारा प्रकाशित होने से अनेक सहृदयों को बड़ी भारी आशा और संतोष होने की दृढ़ संभावना है। पर हमारी समझ में यों तो उसके सभी विचार उत्तम और उपयोगी हैं किन्तु उनके अंतर्गत संस्कृत कालेज स्थापन करने का विचार ऐसा हुवा है जिस की इस समय बड़ी ही आवश्यकता थी। हमें यह पढ़ के बड़ा आनन्द हुवा कि कई उत्साही पुरुषों ने उसी समय चन्दा भी जी खोल के दिया अर्थात् पंद्रह सहस्र रु० के लिए हस्ताक्षर हो गए और आशा है कि शोघ्र ही इसका प्रबंध होने की चेष्टा की जायगी। पर कोई हमसे पूछे तो यही कहेंगे कि और सब काम कुछ दिन के लिए उठा रक्खे जायं पर इसके लिए जैसे बने वैसे शीघ्र ही उद्योग करना चाहिए। देश के सच्चे नीतिज्ञ शुभचिंतकों का परम धर्म है कि चाहे झोली बार के पैसा दुकान २ मांगना ही क्यों न पड़े, चाहे घर के कपड़े बर्तन बेचने हो क्यों न पड़ें, चाहे झूठे वादों पर बरसों टालमटोल करने के नियम पर ऋण ही क्यों न काढ़ना पड़े, पर साम दाम निलंन्नता खुशामद इत्यादि सब कुछ करके किसी न किसी तरह इतना रुपया अवश्य ही एकत्रित कर लेना चाहिए जिससे उक्त कालेज की धन संबंधी अड़चलें मिट जाने की पूर्ण आशा हो जाय । क्योंकि यह एक ऐसा सच्चा सदनुष्ठान है है कि यदि परमेश्वर सत्रमुच धर्म से प्रसन्न होता है और देश का हित करना सचमुच धर्म है तो इस अनुष्ठान के लिए जैसी चाल चलनी पड़े सब धर्म हो है और ईश्वर को प्रिय ही है । यद्यपि उचित तो यह है कि प्रत्येक बड़े नगर में एक २ संस्कृत और हिंदी की महापाठशाला स्थापित करने के लिए पूर्ण उद्योग किया जाय और इस काम के लिए भारतमाता आज इस मंडल का मुंह देख रही है पर यतः दिल्ली में इसकी चर्चा छिड़ गई और कुछ आशा की भी नीव पड़ गई है, इससे सबसे पहिले सो काम छोड़ के वहां इसका ढचर पड़ ही जाना चाहिए । फिर धीरे २ सब हो रहेगा। खरबूजे को देख के खरबूजा रंग पकड़ता है। हम नहीं समझते कि मंडल के उत्साही धर्मवीर यह समझ लें कि बस दिहली में कृतकार्यता प्राप्त हो गई, अब हमें कोई इति कर्तव्य बाको ही नहीं रहा अथवा देश हजार निर्धन, निरुत्साह है तो भी यह संभव नहीं कि जिस बात के लिए हाव २ की जाय उसमें कुछ भी साफल्य न लब्ध हो । पर जो काम सामने है पहिले वुह पूरा होना चाहिए। आज हमारी पठन पाठन व्यवस्था ऐसी सत्यानाश हो रही है कि स्त्रियां जो निरक्षरा होती हैं वे तो अपने कुल की सनातन रीति नीति का कुछ अभिमान भी रखती हैं, धर्म के उन अंगों पर जिनका उन्हें काम पड़ता है कुछ श्रद्धा भी करती हैं, अनेकांश में अपने धन और मान की हानि लाभ का विचार भी रखती हैं, रसोई, पानी, सोने पिरोने आदि में अधिकतः कुशल ही नहीं बरंच कशीदा इत्यादि के द्वारा अपने हाथ से अपना निर्वाह करने भर बंद भी नही हैं पर हमारे बाबू साहब सिवाय नोकरी करके ( सो भी बड़ी २ सिफारिश, खुशामद स्वातंत्र्य त्याग करने पर दस पंद्रह हद बीस ) पेट भर लेने के और किसी काम ही के नहीं हैं। क्योंकि उन्हें