पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली कि क्या घूम खाने वाला अपने कर्तव्य से कुछ अधिक भी करता है ? यदि करता है तो अन्याय करता है, और कुछ न सही तो अपने निज स्वामी को धोखा देता है और भोले भाले अथियों ( गरजमंदों ) को वृथा धमकाता है और उन्हें किसी प्रकार की हानि का डर दिखलाता है। यह क्या कम अंधेर है ? बरंच चोर इत्यादि से इतनी दुष्टता और निर्लज्जता अधिक होती है कि वे डरते २ पराया घर घालते हैं और यह "उलटा चोर कुतवाले डाँटे' का लेखा करता है । यद्यपि रिशवत देना भी अच्छा नहीं, क्योकि अनर्थ- कारी का किसी प्रकार की सहायता देना,जिस से कि वह अपने दुष्टाचरण के लिए पुनर्बार और अतिकतर उत्साहित हो, यह भी एक अनर्थ ही है। परंतु यह (रिशवत देने वाला) लेने वाले के समान वाले दोषी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह मानहानि, धनहानि आदिक के भय बिना ऐसा नहीं करता और यह सभी जानते हैं कि "आरत काह न करै कुकर्म ।" बहुधा रिशवत वही लोग लेते हैं जिनको अपने धनोपाजित धन पर संतोष नहीं होना, और लोभ की अधिकता के कारण जिन्हें न्याय अन्याय का विचार नहीं रहता । और देते भी वही हैं जो या तो अपना दुष्कृत्य छिपाया चाहते हैं या किसी को झूठा दोष लगा के पीड़ित किया चाहते हैं । अथवा यों कहो कि जिन्हें इतना साहस नहीं होता कि किसी नीतिमान सामर्थी के आगे अपना वा औरों का दुःख और दुगुण ठीक २ प्रकट कर सके । सारांश यह कि नीति, बुद्धि और धर्म के यह काम निस्संदेह विरुद्ध है । पर हा ! बड़े खेद का स्थान है कि कुछ दिनों से हमारे देश में इसका ऐसा प्रचार हो गया है कि मूों की कौन कहै पढ़े लिखे लोग भी इस प्रकार प्रत्यक्ष पाप से किचिन्मात्र लज्जा और घृणा नहीं करते । कितने ही मेवावृत्ती (नौकरीपेशा) लोगो के तो यह हराम की हड्डी ऐसी दांत लग गई है कि वे एक अधिक वेतन की जगह छोड़ के, मेरी तेरी खुशामद करके, बरंच कुछ अपनी गांठ से पूज के इसी “बालाई आमदनी" के लिए थोड़े से मासिक पर नियत हो जाने ही को बड़ी चतुरता समझते हैं। हम बहुतों को प्रतिदिन ऐसी बातें करते सुनते हैं कि " कहो उस्ताद, पोस्ट तो बहुत अच्छी हाथ लगी, भला कुछ ऊारी तरावट भी है ?" ___ "हां, नमीवे का है वह मिली रहता है। भला यारो को अंटो पर चढ़ा वह बिना कुछ पूजे कहां जाता है !' जिस महकमे में देखो, जिस दफ्तर मे देखो, ऐसे सत्पुरुष बिरले ही मिलें जिन को इसका चसका न पड़ा हो । विशेषतः रेल पर तो रिशवत बीबी ने नौवाबी ही मचा रखी है । बिना कुछ चढ़ाए पिण्ड ही छूटना कठिन है । विचारे महाजन लोग, जिन को न सर्कार से अपना दुःख कहने का साहस न आपस में एका, न कानून अमझने की बुद्धि, न तो जायं कहां ? माल रोज ही रेल पर लदा चाहै, बाहर से रोज ही कुछ नाया चाहै, फिर जल में रह के मगर से बैर करने में गुजारा है ? क्या करें, जहां राजदंड है, धर्मदंड है वहां यह समझ लिया कि एक रेलदंड भी सही । हमारी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि प्रायः सभी महाजनों की बहियों में "रेल खचं खाते नाम" लिखा मिलेगा, जो नियत महसूल से कहीं अधिक होगः ।