पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३००

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२७८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावलो स्कूल में आत्मगौरव, कुलाचार, कुलधर्म, सुनीति, सुख निर्वाह, उद्योग, उत्साह आदि की शिक्षा ही नहीं दी गई। तमाम हिस्टरी रटे बैठे हैं पर इतना नहीं जानते कि हिन्दुओं में भी कोई सच्चा धामिक बीर उत्साही अपने भरोसे सब कुछ करने का इरादा रखने वाला केवल थोड़े से साथियों के बल पर बड़े बूढ़ों के दांत खट्टे कर देने में साहसी हुवा है अथवा नहीं ? मिशन स्कूलों में तो खैर देवता, पितर, तीर्थ, व्रत, गऊ, ब्राह्मण, तुलसी, ठाकुर, गंगा, भवानी आदि की ओर से अश्रद्धा उपजाने की चेष्टा की ही जाती है पर अन्य स्कूलों तथा कालेजों में भी हम नहीं देखते कि जातित्व संरक्षण की शिक्षा मिलती हो। हां, आप अपनी चतुरता से दूसरों को देखादेखी अपने देश अपनी जाति गृह कुटुंबादि का महत्व भले ही सीख लें पर वहां यही सिखलाया जाता है कि आर्य लोग हिन्दुस्तान के कदीम बाशिन्दे न थे, कहो बाहर से आकर यहां बसे थे । धन्य है ! पातित्व नष्ट कर देने की क्या अच्छी युक्ति है, पर निर्मूल। नहीं तो भला मार्यों की सी समुन्नत जाति और पूर्ण उत्थान के समय किसी ग्रन्थ में अपने पूर्व निवासस्थान का नाम भी न लिखती ? मुख्य मातृभूमि की ममता न करके 'दुर्लभं भारते जन्म' इत्यादि के राग गाती? पर समझे कौन, समझ तो विदेशी शब्द ही रटते २ थक जाती है । ऊपर से प्रयाग यूनीवसिटी ने हिन्दी ( और अपना कलंक मिटाने मात्र को उर्दू भी, पर झूठमूठ, नहीं तो फारसी के विद्वान उर्दू में अधिकतः दक्ष होते हैं किन्तु संस्कृत के पंडित हिन्दी में विरले ही चतुर होगे इसीसे अनेक सहृदयों का सिद्धान्त है कि हिन्दी के साथ फारसी की तुलना हो सकती है न कि उर्दू ऐसी कच्ची भाषा की ) का अपमान करके यह और भी कोढ़ में खाज बढ़ा दी है कि जिन कोमल प्रकृति बालकों की बुद्धि एक ही विदेशी भाषा के मारे प्रस्फुरित न होने पाती थी वे अब दो २ दूरदेशी भाषा पढ़ें और स्वास्थ्य को तिलांजलि दे के, बुद्धि संचालन का समय ही न पा के, लड़कपन यों व्यर्थ बितावै । फिर यौवन और रार्धक्य तो परमेश्वर ही ने व्यर्थ किया है। हम सैकड़ों बी. ए. एम. ए. दिखला सकते हैं जिनमें अंगरेजी बोल लेने के अतिरिक्त सदाचार, सुशीलत्व, देशभक्ति आदि विद्या के फल की गंध भी नहीं है क्योंकि उन्हें कभी शिक्षा ही नहीं दी गई। यदि स्कूल की अनेठा से घबरा के लड़के को मौलबी साहब के यहां भेजिए तो हिसाब का नाम न जानेगा, भूगोल खगोल रेखागणित बीजगणित का स्वप्न न देखेगा, अपने पूर्वजों को यह भी न समझेगा कि किस खेत में पैदा होते थे। हो बड़े बूढ़ों के सामने नम्रता और बराबर वालों से शिष्टता में अभ्यस्त हो जामगा। अंगरेजी में इसका भी अकाल नहीं तो मंहगी अवश्य है। पर सीखने को जन्म भर में आशिक, माशूक, गुल बुलबुल, जुल्फ, अब और बस ! इसका फल केवल इतना कि खाते पीते घर का हो तो तरहदारी को नहीं तो अमीरों की खुशामद में जीवन बिता दे। मनुष्य का जन्म का कर्तव्य जानना घर से सो कोस दूर है। रहे हमारे पंडितराज, उनके यहां आठ दस वर्ष केवल 'कौमुदी' रटने में लगते हैं। दूसरे शास्त्र पढ़ने हो तो ब्रह्माजी की आयु- दय चाहिए, क्योंकि व्याकरण केवल दूसरे छात्रों को समझने के लिए पढ़ी जाती है,