पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३०१

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सच्चा सदनुष्ठान ] २७९ सो यहां दतून ही करते दुपहर पर चार बजते हैं,नहाना कैसा ? इसके साथ हिंदी में अभ्यास करना तो दूर रहा 'भाषायाः किम्प्रमाणं' ? संस्कृत भी ऐसी ही रहती है कि एक श्लोक रख दीजिए, पहर भर तक पदच्छेद सुन लीजिए भावार्थ पूछिए तो 'एक वृक्षे समारूढा नानावर्णा विहंगमाः'-एक जो है वृक्ष तेहि बिखे नाना वर्ण के जो विहंगम कह चिरई है ते सम्यक् प्रकार करि के आरूढ़ है, बस समझो चाहे चूल्हे में नाव । और जो कही संस्कृत में एक चिट्ठी लिखनी पड़े तो सत्रह दिन चाहिए। बस, राम राम सीताराम । पर इसके साथ रुक्षता, अभिमान और अवसिकता पर्मामीटर का पारा सदा एक सो बारह नंबर पर रहता है । सभा में बैठे तो शांति रक्षा के लिए पुलिस बुलाना पड़े। देश की क्या दशा है, जाति का कैसा रंग है, उसके सुधार के लिए क्या कर्तव्य है इन बातों का कदाचित स्वप्न में भी ज्ञान नहीं। ऐसी दशा में हम नहीं कह सकते कि द्वेषी लोग संस्कृत भाषा और हिन्दी को निरी निरर्थक क्यों न कहें ? जिस संस्कृत में आज भी वह २ बातें विद्यमान हैं जो दूसरी भाषाओं को सैकड़ों वर्ष मिलनी कठिन है, जिस हिंदी के बिना हिंदू जाति का गौरव हो नहीं सकता उसकी यह दशा और देश भाइयों की उसके विषय में यह उपेक्षा, तथा गवर्नमेंट की ऐसी क्रूर दृष्टि देख के किस परिणाम- दर्शी को भविष्यत् के लिए दुर्दैव की एक अकथनीय कराल मूर्ति न देख पड़ती होगी। एक भयानक मूर्ति को खंडित कर देने की आशा श्री दयानन्द स्वामी एंग्लो वैदिक स्कूल से भी की जा सकती है। पर उसके एक तो पंजाब में होने के कारण जितना सहारा संस्कृत को मिलता है उतना हिन्दी को मिल नहीं सकता और हिन्दी के बिना इस काल में संस्कृत को ऐसा ही समझना चाहिए जैसे बिना शस्त्र का योदा । दूसरे अभाग्यवशतः वहां पुराणों का आदर ही नहीं है जो सहृदयता का मूल है। इससे वहां के विद्यार्थी साक्षर चाहे जैसे हो जायं देश हितैषी और उद्योगी अवश्य होगे, पर रहेगे शुष्कवादी और सर्वसाधारण का स्नेह लाभ करने में अक्षम । ऐसे अवसर पर भा०प० म० मं. का उपर्युक्त बिचार ऐसा हुवा है जैसे सूखती हुई खेती के पक्ष में मेघमाला का दर्शन । परमेश्वर करे यह कालेज स्थापित हो जाय तो आशा है कि वेद शास्त्र पुराण काव्य नीति इतिहास सभी को आश्रय मिलेगा और साथ ही नागरी देवी भी बड़ा भारी सहारा पावेगी। तथा किसी संप्रदाय को इससे चौंकने की भी संभावना नहीं हैं । हम यह भी नहीं सोचते कि इसके अधिकारी लोग बालकों के स्वास्थ्य और सदाचरण पर भी उतना ही ध्यान न देंगे जितना शिक्षा के लिए दातथ्य है। इस रीति से कोई संदेह नहीं है कि दस ही पांच वर्ष में व्यवहार कुशल, धर्माभिमानी, देशभक्त, जाति- हितैषी, उद्योगशील और कार्यदक्ष नवयुवकों का एक समूह उस्थित हो के हमारे संतोष का कारण होगा। इसी से कहते हैं कि इस सदनुष्ठान में विलम्ब करना ठीक नहीं। जैसे बने तैसे कर ही उठाना चाहिए। खं. ७, सं० ५ ( १५ दिसंबर ह० सं० ६)