पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३०३

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ग्रामों के साथ हमारा कर्तव्य ] २८१ कि प्रत्येक बड़े से बड़े नगर की लोकसंख्या से उसके अंचलस्थ गावों की लोक संख्या अधिक है। न मानिए आने वाली मरदुमशुमारी के द्वारा निश्चय कर लीजियेगा कि नगरों में बहुत लोगों की बस्ती है कि ग्रामों में । पर खेद है कि जहां थोड़े लोग बसते हैं, जहां सब प्रकार के सम्योपयोगी साधनों के अवयव सुगमता से प्राप्त हो सकते हैं, जहां का जन समुदाय स्वयं अथच परम्परा द्वारा सब भाषाओं के सब भाव समझ सकता है वहां के सुन्न सुविधा साधन और भविष्यत के लिए सुमार्ग एवं सुदशा के संस्थापनार्थ सो सब प्रकार के उपाय किए जाते हैं पर जहां की जनसंख्या बहुत ही अधिक वरंच तीन चौथाई से भी बहुत है और जहां अभी नवीन परिष्कृत रीतियों का समाचार भी बहुत ही स्वल्प पहुँचा है वहां की ओर देशोद्धारकों का ध्यान ही नहीं है। वहां के लोगों को उपदेश करने कभी जाते भी हैं तो पादरी साहबों के परिषद, जिनका मुख्य उद्देश्य भारतीय धर्म एवं जातित्व का नष्ट कर देना है। क्या देश और जाति का मंगल चाहने वालों का इतना ही मात्र कर्तव्य है कि कपड़े बदल लिए और एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले अथवा रेल पर बैठ के एक नगर से दूसरे नगर में चले गए और अंगरेजी अथवा अरबी मिश्रित उरदू मे लेकचर दे २ कर ताली पिटवा आय और घर आ बैठे ? इस रीति से यदि कुछ प्रभाव होता भी है तो केवल उसी स्वल्प समुदाय पर जो आपकी बतलाई हुई बातो से पहिले भी अविज्ञान न था। पर इस प्रभाव को हम क्या आर भ। इस देश पर प्रभाव पड़ना नहीं कह सकते क्योंकि जितनों को आप सुधारने का यत्न करते हैं अथवा कुछ सुधार भी लिया है उतना तो देश का चतुर्थाश भी नहीं है, है भी तो पहिले ही से कुछ सुधर रहा था, फिर आप देश की सेवा करते हैं वा केवल अपने सदृश लोगों के द्वारा प्रशंसा संचय करते हैं ? शहर में आप सो समाचारपत्र निकालिए, सहस्र समाजें स्थापित कीजिए, लाख पुस्तकें प्रवारित कीजिए, करोड़ लेकचर दीजिए पर देश भर का भला नहीं कर सकते, देश का सच्चा आशीर्वाद नहीं लाभ कर सकते, जब तक उनके उद्धार का प्रयत्न न कीजिए जो जानते भी नहीं हैं कि उद्धार किस चिड़िया का नाम है, देशभक्ति अथवा जाति हितषिता किस खेत की मूली है, मानव जाति का कर्तव्य क्या है, देश की भूत दशा क्या थी, वर्तमान दशा कैसी है और भविष्यत् के लिये इसके निमित्त किस २ रीति से क्या २ करना चाहिए । हम जिस प्रकार से आज जीवन व्यतीत कर रहे हैं वैसे ही हमारी संतान भी सदा दिन काटती रहेगी अथवा कुछ परिवर्तन भी होगा, इस प्रकार के ज्ञान का प्रचार जिनके लिए आवश्यक है वे यद्यपि अनेकांश में धनी, विद्वान, विचारशील, प्रतिष्टित एवं समर्थ नहीं है पर मनुष्य वह भी हैं और यदि कोई उनके समझने योग्य भाषा में समझा दे तो समझ सब कुछ सकते हैं । एवं यह कहना भी अत्युक्ति न समझिएगा कि उन्ही के बनने बिगड़ने का नाम देश का बनना बिगड़ना है। पर क्या कीजिए, जो लोग देश के सुधार का बाना बांधे हैं वे आज तक इन के सुधारने का नाम ही नहीं लेते। नहीं तो यह लोग वे हैं जो नगर निवासियों की अपेक्षा अधिक निष्कपट, अतिशय कृतज्ञ, बड़े सहिष्णु और महा दृढ़चित्त होते हैं। जिस बात को अच्छा समझ लेते हैं,