पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपभ्रंश ] २८३ कारण घबरा उठना व्यर्थ है, ऐसी २ अनेक बातें हैं जिन्हें वे समझते भी हैं तो न समझने के बराबर । हां, कोई समझाते रहने का बीड़ा उठावे तो वे उसका अवश्य बड़ा उपकार मानेगे और अपने निर्मूल दुःखों से बच के बड़े उत्साह के साथ प्रत्येक सदनुष्ठान में योग देंगे। जिन २ ग्रामों में श्री स्वामी दयानंद जी की शिक्षा ने प्रवेश पाया है वहां के लोगों ने यह बात प्रत्.क्ष दिखला दी है कि वे उद्योग, उत्साह भोर दृढ़ता में किसी से कम नहीं हैं। फिर हम नहीं जानते कि हमारे सामाजिक और राजनैतिक उपदेशकर्ता क्यों उनकी ओर अपना प्रभाव नहीं फैलाते ? क्या मैदानों को साफ ताजी हवा, शुद्ध घी दूध, प्रकृति के स्वाभाविक दृश्य, सीधे सादे देश भाइयों का समागम और उनके उद्धार का यत्न तथा उनके द्वारा अपने कामों में सहाय लाभ करना थोड़े विनोद का हेतु है ? ग्रामों से हमारा प्रयोजन उन जनस्थानों से हैं जो रेल, कचहरी और पको सड़क से दस बारह कोस दूर है। वहाँ ईश्वर की ओर से सतयुग का एक चरण अब भी विद्यमान है। पर इधर उधर के मनुष्यों की ओर से कभीर नव्याबी का आविर्भाव हो जाया करता है। यदि हमारे देशवत्सलगण वहां जा जाकर अपना कर्तव्य निर्वाह किया करें तो उ मा तथा अपना भी बड़ा उपकार कर सकते हैं। क्या बड़ी२ सभाओं के बड़े २ व्याख्यानदाता इस बात का स्वयं भी विचार करेगे ? खं० ७, सं० ६, (६५ जनवरो ह० सं० ७) अपभ्रंश यह महात्मा जिस शब्द पर दांत लगाते हैं उसे तोड़ मरोड़ के ऐसा बना देते हैं कि शीघ्रता में उसका शुद्ध रूप समझ में आना कठिन हो जाता है। बरंच कभी २ तो ऐसी सूरत पलट देते हैं कि यह भी नहीं जान पड़ता कि यह शब्द है किस भाषा का। दिहातों में कच्ची दीवारों पर भूसा और मिट्टी एक में सान के लगाई जाती है । उसका नाम वहाँ के हिंदू, मुसलमान, पढ़े, बिन पढ़े, जिससे पूछिए कहगिलि बतलावैगा पर यह कोई नहीं बतलाता कि वह शब्द किस भाषा का है। विचारने से जान पड़ेगा कि फारसी में काह अथवा कह घास को और गिल मिट्टी को कहते हैं । यही दोनों मिल के काहोगिल, काहगिल, कहिगिल अथवा कहगिलि का रूप धारण कर लेते हैं और 'नवेदद्यावनी भाषा' का सिद्धांत रखने वाले पंडितों तक को ग्राम भाषा होने का धोखा देते हैं । ऐसे ही 'लप्प लप्प' (जीभ सप्प लप्प होती है ) फारसी के लब ब लब अर्थात एक होंठ से दूसरे होंठ को लाना अथवा उसी अर्थ के वाचक लबालब का अपभ्रंश है । इस अपभ्रंश की दया से दूसरी भाषा के थम्ब दूसरी भाषा में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनकी असलियत जामना कठिन हो जाता है। हमने गत वर्ष युवराज कुमार के स्वागत