पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३०६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२८४ [प्रतापनारायण-ग्रंथावली में लिखा था कि 'जीवहिं तव पितु मातु कका काकी अरु आजी'। इस पर बहुतेरे मित्रों ने जिला और लेखनी द्वारा विदित किया था कि 'कहाँ का गंवारी शब्द ला रक्खा है'। पर वह विचारते तो जान जाते कि आजा ( पितामह ) आजी ( वरंच संबोधन में अरी आजी = आर्या जी ) ऐया और अजी, ऐजी तथा जी एवं मद्रासी ऐपर ( कुलीन ब्राह्मण ) सब आयं शब्द को रंग बदलोअल है । बरंच हिंदी को सृष्टि ही संस्कृत शब्दों के अपभ्रंश से हुई है। अक्षि ( आँख), कर्ण (कान), मुख (मुंह) इत्यादि लाखों शब्द यदि शुद्ध रूप में प्रयोग किए जाय तो निरी संस्कृत ही बोलना पड़े। इससे अपभ्रंश का त्याग करना भी भाषा का अंग भंग करना है क्योंकि उसके बिना निर्वाह ही नहीं। प्रकृति का नियम ही है कि संस्कृत के 'यत्' शब्द को बंगाल में ले जाकर 'जती' और 'जे' तथा विलायत में पहुँचा कर घट that के रूप में जैसे ला डाला है वैसे ही अनेक भाषाओं के अनेक शब्दों के अनेक रूपांतर करके भाषांतर तथा अर्थातर की छटा दिखाता रहता है। फिर हम नहीं जानते खड़ी बोली की कविता के पक्षपाती बृजभाषा से क्यों चिटकते हैं और श्री गोस्वामी तुलसीदास तथा बिहारीलाल इत्यादि सत्कवियों के बवनामृत को सुधारने की नीयत से क्यों शक्कर को बालू बनाते हैं । क्या इतना नहीं समझते कि अंग्रेजी 'जियोग्राफी' अरबी 'जुगराफिया' और फारसी 'जायगाह' 'जागाह' 'जागह' 'जगह' 'जाय' और 'जा' सब संस्कृत वाले 'जगत्' अथवा 'जग' के रूपांतर हैं । पर यदि कोई हठतः उलट फेर के किसी शब्द को किसी भाषा के साथ रजिस्टरी किया चाहे तो हंसी कराने के सिवा कुछ लाम न उठायेगा । फिर यदि कवियों के प्रेम प्रतिष्ठा को आधारस्वरूपा वृजभाषा ने आपके 'आया' 'गया' इत्यादि को माधुर्य के अनुरोध से 'आयो' 'गयो' इत्यादि बना लिया तो क्या बिगाड़ हो गया । एक शब्द का दूसरी प्रकार से उच्चारण करना तो सदा से होता ही आया है । इससे किसी को हस्तक्षेप का इरादा करना निरी बौखलाहट है। ख० ७, सं० ६, (१५ जनवरी ह० सं० ७) सहबास बिल अवश्य पास होगा ___ कहीं मुंह को फूंक से पहाड़ नहीं उड़ २ जाते । अखबारों का चायं २ करना अथवा लोगों को छोटी २ बड़ी २ सभाएं करके उसके विरुद्ध मेमोरियल भेजना नक्कारखाने में तूती की आवाज मात्र है। यह बातें उस देश में प्रभावशालिनी हो सकती हैं जहां को समाज में कुछ जीवन हो, जहां के समुदाय को तत्रस्थ राजपरिकर कुछ समझता हो । पर भारत के भाग्य से अभी यह सौभाग्य सो कोस दूर है। हमें ऐसी किसो बृहन घटना का स्मरण नहीं है कि जिसमें प्रजा की पुकार ने 'राजा करे सो न्याव' वाले