पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३१०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२८८ [प्रतापनारायणग्रंथावली भी दुस्साध्य हो जाता है। इसी निर्धनता के मारे हमारे तन का ऐसा पतन होता चला जाता है कि जिन लोगों को पाठशाला छोड़े हुए अभी पंद्रह वर्ष बीते हैं उन्होंने अपने सहपाठियों में जो क्रांति, जो स्फूति, जो उत्साह, जो मस्तिष्क शक्ति देखी है उसका इहकालिक विद्यार्थियों में कही लेश मात्र भी नहीं पाया जाता, चाहे लाख क्रिकेट ( अंगरेजी रंग की कन्दुक क्रीड़ा ) दिखलाइए कोटि कसरत कराइए पर वह बात सपने में न देख पड़ेगी जो उनके बड़े भाई अथवा चचा इत्यादि में थी। कारण क्या है कि दिन दूनी उन्नति करते हुए दरिद के हाथों इन बेचारों को निश्चिन्तता के साथ उत्तम भोजन नहीं मिला। इन दिनों के लोग इस निस्तेजता का हेतु बाल्य विवाह को समझे बैठे हैं पर अभी सैकड़ों लोग जीते हैं जिनको अवस्था साठ सत्तर वर्ष के लगभग है पर चेहरे पर एक प्रकार की दीप्ति दीप्त हो रही है। शीतकाल में नंगे शिर, नंगे पाव केवल रामनामी ओढ़ के गंगास्नान कर आते हैं और आ के आध सेर ढाई पांव मट्ठा तथा घुइयां वा शकरकंद पेट भर के खा लेते हैं पर श्लेष्मा, अनपच का नाम भी नहीं जानते। ग्रीष्म ऋतु में तेल के भूने हुए पंद्रह २ करैले उड़ा जाते हैं पर यह कभी नहीं कहते कि औगुन किया। दो चार दिन के जर जूडी अथवा दस पांच कोस चलने की थकाहट से कातर होने का नाम भी नहीं लेते और पता लगाइए तो ब्याह इनका भी उसी अवस्था में हुआ था जिसमें अब होता है और चरित्र इनके भी ऋषि मुनियों के से न थे, न घर में कोई भीडा गड़ा था। पर हो, खाने को इन्हें थोड़े दामों पर थोड़े परिश्रम के साथ, अच्छे शुद्ध और पुष्टिकारक पदार्थ मिलते रहे हैं। इसी से यह साठा सो पाठा वाली कहानत का जीवित उदाहरण बने बैठे हैं। पर इनके युवक संतान से यह बात कोसों दूर है। यह नाम मात्र के युवा पुरुष थोड़ी सी सरदी गरमी भी नही. सह सकते । तनिक सा कुपथ्य कर लें तो दस पांच दिन तक शारीरिक शिकायत के बिना नहीं रह सकते। इन्हें जा रोग आता है तब महीनों हो के लिए आता है और बिना अच्छी भली रोकड़ लिए नहीं जाता। यह क्यों ? केवल इसी से कि इन के लिए कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवा इत्यादि आय के सभी द्वार बंद हैं । जिस काम में हाथ लगाते हैं उसी को बिघ्न में विट पाते हैं। परमेश्वर झूठ न बुलावै, सो कुटंब में अस्सी ऐसे ही मिलेंगे जिन में छोटे बड़े सभी यथासाध्य कुछ न कुछ उद्योग करते हैं पर ऐसा कोई वर्ष नहीं आता जिसमें खाने पहिनने के व्यय से कुछ रख छोड़ने भर को भी बचता हो, कार से टिक्कस चंदा विदेशी व्यापार की वह भरमार कि बिना दिए निर्वाह कठिन, इज्जत बचना दुश्वार । लेने वालों की आय व्यय से कुछ प्रयोजन नही । घर का काम क्यों कर चलता है, सामयं कितनी है, उनको बला से । पेट पालने के उपाय का नाम लेते हो फिर इसका प्रायश्चित क्यों न करोगे। विश्वास दमड़ी भर नहीं । एक दिन पिछलने न पावै, हो उजुरदारी करना हो तो उसकी भी सांगिता सही पर दान पहिले हो जाना चाहिए। इसके साथ ही दमड़ी की सूई, अंग ढांकने को कपड़ा, कहाँ तक कहिए शरीर रक्षा के लिए औषधि तक विदेश से आवे, एक २ के ठौर पर चार २ उठवाद और जो कुछ पास की पूंजी ले जाये वह सीधे