पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३११

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जाने क्या होना है ] २८९ सात समुद्र पार ही पहुंचा और वहां से सो जन्म तक फिर भारत का मुंह न देखने पावं । जहाँ आमदनी का वह हाल और खर्च की यह गति हो वहाँ किसी का चित्त ठिकाने रहे तो कैसे रहे। प्राचीन अनुभवशीलों का वचन है कि-'चिता चिता समाख्याता किंतु चिता गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं चिंता जोवयुतां तनुम् ।' वह चिता यहां अनेक रूप से शिर ही पर चढ़ी रहती है। पेट की चिंता, लड़के बालों की चिता, बाहर वालों की दृष्टि में संभ्रम बनाए रखने की चिंता,घर बैठे किसी से कुछ वास्ता म रखने पर भी इज्जत की चिता। क्योंकि निश्चिन्तता तो तभी होती है जब घर में मधिक नहीं तो निर्वाह भर का तो सुभीता हो पर पता लगाइए तो जान जाइएगा. कि ऐसे कितने लोग हैं जो शुद्ध रोति से बेफिकरी के साथ खा पाते हों । ऐसी दशा में घोहत और निस्तेज हुए बिना कौन रह सकता है ? इसके ऊपर तुर्ग यह है कि खाने के पदार्थ दिन २ महंगे होते जाते हैं । धरती की उत्पादन शक्ति नहरों को बालू में दबती और जल में डूती रहती है। इस देश की जलवायु के अनुकूल उत्तम भोजन घी दूर हैं। वह हर साल अलभ्य नहीं तो दुर्लभ होते जाते हैं। जिन्हें ज्यों त्यों प्राप्त भी होते हैं तो सुट नहीं। फिर भला जिनको घी के स्थान पर गुल्लू का तेल और दूध के ठोर पानी मिलता है वह क्या खा के पुष्ट रह सकते हैं। यदि परिश्रम करके आंखों के आगे दुहाइए अथवा तवाइए तो भी यह निश्चय होना महा कठिन है कि उन पशुओं को पेट भर उचित खाद्य मिलता होगा । क्योकि जहां मनुष्यों ही का पेट भरने में सैकड़ों अलसेठे हैं वहाँ पशु विचारों की क्या कथा। फिर उनके घृत दुग्ध मांस में वह गुग कहां से आवै जो बैद्य बतलाते हैं और अभी तीस वर्ष पहिले यथावत विद्यमान थे। हाय, ऐसी अड़चलों से, जिनका दूर होना महा दुष्कर है, हम निस्तेज और हनवार्य होते जाते हैं। हमारी संतति हम से भी गई बीती उत्पन्न होती है। उसका पालन और भी कठिम देख पड़ता है। इसी से हम पर यह लोकोक्ति सार्थक हो रही है कि 'करवा के जनमल तुतही तुतही के जनमल सुतुही ।' जो बल वीयं पराक्रम बाबा में था उसका चतुर्थांश भी पिता में न था और जो पिता में था उसका हम में शतांश भी नहीं है। जो हमारे आगे उपजते हैं उनमें हमारे ओज तेज की भी गंध तक नहीं आती। यह लक्षण देख २ के विचारमान व्यक्ति यही सोचते रहते हैं कि न जाने क्या होना है। न जाने किस जन्म के किन २ पापों का फल परमेश्वर ने भारत संतान ही के लिए संचित कर रखा था। इसके निराकरण का उपाय यद्यपि कष्टसाध्य है पर है सही। किंतु उसके अवलंबन करने वाले तो क्या समझने वाले भी पचीस कोटि देशवासियों में पचीस सहस्र भी हों तो बड़ी बात है । इसी से रह २ कर हृदय में दुःख और दुराशा से कुचाल हुआ यही प्रष्ण उठता रहता है कि न जाने क्या होना है। खं० ७, सं० ७ (१५ फरवरी ह० सं०७),