पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

देव मंदिरों के प्रति हमारा कर्तव्य संसार सागर का सर्वोत्तम रत्न, मनुष्य मंडलो का सर्वोतम गुण, ईश्वर का सर्वोत्तम महाप्रसाद ममता है। यह न होती तो सृष्टि हो रचने का क्या प्रयोजन था और यह न हुई तो हमारे इष्ट, मित्र, बंधु बांधवादि का होना न होना बराबर है । वही महात्मा कबीर की कहावत आ जायगी कि 'न हम काहू के कोऊ न हमारा'। यही नहीं, ममता न हो तो ईश्वर ही क्या है ? केवल एक शब्द मात्र । धर्म ही क्या है ? बे शिर पर की व्यर्थ बातें। नहीं बतलाइए तो जिन्हें आप अपने लोक परलोक का सहायक कहते हैं उन्होंने ने कब आपके शिर से तिनका भी उतारा है ? जिसे आप बड़ी २ पोथियों और पोथाधारियों के द्वारा सिद्ध किया करते हैं उससे आपका निज का कौन कार्य सिद्ध होता है ? ऐसे २ प्रष्णों का यथार्थ और अखंडनीय उत्तर इतना ही हो सकेगा कि हमें अपने ईश्वर, अपने धर्म, अपने शरीरादि के साथ ममत्व है। इसीसे दृढ़ विश्वास हो रहा है कि वही हमारे सर्वस्व हैं। उन्हीं से हमारा त्रिकाल और त्रिलोक में हित है। हां, यह सत्य है और इसके साथ यह भी झूठ नहीं है कि आपका हृदयस्थ ममत्व केवल आप ही के लिए हितकारक नहीं है बरंच उन व्यक्तियों और वस्तुओं के लिये भी बड़े हो उपकार का साधन है जिन पर आप अपना ममत्व स्थापन कर रहे हैं। जगत् के लोग न मानें तो ईश्वर अपनी महिमा लिए अदृश्य धाम में बैठे रहें, धर्म अपनी पोथियों में पड़ा रहे, उसको हृदयहारिणी जयध्वनि का नाम भी न सुनाई दे । इससे सिद्ध हो गया कि सबके लिए, सर्व रीति से ममता ही सब कुछ है । इस सिवांत को सामने रख के बिचारिए तो जान जाइएगा कि हमारे देव मंदिर, देव प्रतिमा, मसजिद, गिरजा सब यों तो इंट, पत्थर, मट्टी, चूना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं पर हम उन्हें अपना समझते हैं। इसीलिये उनके निर्माण में अपनी पूंजी का बड़ा भाग लगा देते हैं और उनकी महिमा बढ़ाने के लिए ईश्वर को सर्वव्यापक मान के भी उसकी स्तुति प्रार्थनादि करने के लिए उन्ही में जाते हैं। इस रीति से हमारा यह हित होता है कि यदि हमारी मनोवृत्ति नितांत राक्षसी न हो गई हो तो उनके भीतर हम उन कामों के करने से अवश्य हिचकेंगे जिन्हें हमारी तथा : अनेक सहृदयों की अंतर त्मा ने अनुचित समझ रक्खा है। वहाँ जाके थोड़ा बहुत ईश्वर का स्मरण भी होगा, धर्म और धर्मात्मा पुरुषों का ध्यान भो आवेगा। इसके अतिरिक्त हमारे सहधर्मी मात्र को देश, जाति, धर्म, व्यवहार आदि के सुधार का विचार तथा अषित अमोद प्रमोद लाभ करने के लिए बड़ा भारी सुभीता रहेगा। इस प्रकार के सब कामों के लिए सदा सर्वदा स्थान ढूंढने का झगड़ा नही, स्वच्छता संपादन की चिता नहीं। जब जिस व्यक्ति अथवा समुदाय को काम लगा, जा बैठे । इसीलिए हमारे दूरदर्शी पूर्वजों ने इस प्रकार के मंदिर बनाने की प्रथा चलाई थी जिसमें देश और