पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३१५

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'एक साधे सब सधै सब साधे सब जाय' 1 २९३ है। इससे जो लोग धर्म को सर्वोपरि समझते हैं और रामचन्द्र को राजेश्वर मानते हैं उन्हें तन, मन, धन, प्राण पन से सन्नद्ध हो जाना उचित है और तब तक चुप होना अनुचित है जब तक इसका अचल प्रबंध न हो जाय। इसमें किसी का भय संकोच कर अपना स्वार्थ अथवा मानापमान का विचार अकर्तव्य है क्योंकि तीर्थेश्वरी काशी और देवेश्वर रामचन्द्र का काम है। यदि इसमें कुछ भी आगा पीछा किया गया तो आगे के लिए कुछ भी भलाई नहीं है । जब धर्म नहीं तो कुछ भी नहीं । खं० ७, सं० ८ ( १५ मार्च ह. सं०७) एक साधे सब सधैं सब साधे सब जाय' इस कहावत में दो उपदेश हैं। एक तो यह कि यदि सच्चे उत्साह से दृढ़ता के साथ एक पुरुष भी किसी काम को कर उठावे तो बहुत कुछ कर सक्ता है किंतु आंत- रिक चाव के बिना अनेक लोग भी कुछ करना ठानते हैं तो भी कुछ नहीं कर सकते, किया भी तो क्या न करने के बराबर । दूसरी शिक्षा यह है कि एक अथवा अनेक जने मिल के यदि प्रस्तुत कार्यों में से एक के लिए तन, मन, धन बचनादि से जुट जायं और जी में यह प्रण कर लें कि जो कुछ होगा सहगे पर इसको पूरा किए बिना कभी न रहेंगे, तो उसके पूर्ण होने में तो संदेह ही नहीं है। जो संदेह करे वह ईश्वर के अखंड मंगलमय नियम और अनेक बुद्धिमानों के अनुभूत सिद्धांत तथा अपने पुरुषार्थ की विड- म्बना करता है। इससे हृदयवान व्यक्ति को मान ही लेना चाहिए कि जिस काम को अनेक लोग एक होकर करना विचारते हैं वह अवश्य होता है। बरंच उसके साथ २ दूसरे कर्तव्य भी या तो सिढ ही हो रहते हैं अथवा उनमें की पूर्ति वाली कठिनता प्रायः दूर हो जाती है। इनमें से पहिले सिद्धांत के तो अनेक उदाहरण हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने जिस समय गोवर्द्धन उठाया तो अकेले आप ही ने अपनी अंगुली पर उठा लिया क्योंकि वे दृढ़चित्तता के रूप, बरंच दृढ़ चित्त भक्तों के अराध्य देव हैं । किंतु जब दूसरे गोप गोपियों ने उन्हें बालक समझ के लकुट और मंयन दंड से सहारा दिया तथा यह देख के भगवान ने भी हाथ ढीला किया तो गिरिराज गिरने पर उद्यत हो गए। इस कथा में एक यह भी ध्वनि निकलती है कि जो पुरुष सिंह केवल अपने भरोसे किसी काम में हाथ लगाता है उसे सहारा दीजिए, पर यह न समझिए कि हमारे बिना यह क्या करेगा। यदि वह सच्चा साहसी है तो उसे ईश्वरीय सहायता प्राप्त है। हां, बाह्य साहाय्य ही की आवश्यकता होगी तो आपके साथी बहुत रहेंगे अतः आपका अह- मिति प्रदर्शन व्यर्थ, बरंच आदि कर्ता के उत्साह भंग द्वारा कार्य नाश को शंका उपजाने के कारण हानिकारक हैं। इसी भांति हम अपने प्राचीन ऋषियों का चरित्र देखते हैं तो अवगत होता है कि यद्यपि कभी २ कही २ पर उनका अट्ठासी २ सहन का समूर